________________
1
-५० ]
३३. . संस्थानविचयः
1738 ) न कलत्राणि मित्राणि न पापप्रेरको' जनः । पदमप्येकमायातो' मया सार्धं गतत्रपः ' ॥ ४७ 1739 ) आश्रयन्ति यथा वृक्षं फलिनं पत्रिणः पुरा । फलापाये पुनर्यान्ति तथा ते स्वजना गताः ||४८ 1740 ) शुभाशुभानि कर्माणि यान्त्येव सह देहिभिः ।
ર
स्वार्जितानीति यत्प्रोचुः सन्तस्तत्सत्यतां गतम् ॥४९ 1741 ) धर्म एव समुद्धर्तु ं शक्तो ऽस्माच्छ्वभ्रसागरात् । न स स्वप्नेऽपि पापेन मया सम्यक् पुरार्जितः ॥ ५०
1738 ) न कलत्राणि - पापप्रेरको जनो मया सार्धम् एकमपि पदं न यातः । कीदृशः । गतत्रपः निर्लज्जः । शेषं सुगमम् । इति सूत्रार्थः || ४७|| अथ स्वजनानां स्वार्थित्वमाह ।
५७१
1739) आश्रवन्ति - पत्रिणः पक्षिणः । शेषं सुगमम् । इति सूत्रार्थः ||४८ || अथ परलोकादी स्वकर्मातीत्याह ।
1740) शुभाशुभाति - सन्तः सत्पुरुषाः यत् प्रोचुः कथयामासुः तत् सत्यतां गतं प्राप्तम् । शेषं सुगमम् । इति सूत्रार्थः || ४९|| अथ पुनः पश्चात्तापमाह ।
1741) धर्म एव - मया पापेन स्वप्नेऽपि स धर्मः पुरा न सम्यगर्जितः उपार्जितः । पूर्वाध सुगमम् । इति सूत्रार्थः ||५० || अथ पुनरेतदेवाह ।
हैं। स्त्रियाँ, मित्र और निर्लज्ज होकर मुझे पापकी ओर प्रेरित करनेवाले अन्य जन भी इस समय मेरे साथ एक कदम भी नहीं आये हैं ॥४६-४७॥
जिस प्रकार पक्षी किसी फलयुक्त वृक्षको देखकर पहले तो उसका आश्रय लेते हैं और जब उसके फल समाप्त हो जाते हैं तब फिर उसको छोड़कर अन्यत्र चले जाते हैं उसी प्रकार कुटुम्बीजन भी जबतक उनका स्वार्थ सिद्ध होता है तबतक रहते हैं और फिर उसकी सम्भावना न रहने पर छोड़कर चले जाते हैं - संचित पाप कर्मका उदय आनेपर प्राप्त हुए घोर दुःखका सहभागी कोई भी नहीं होता है || ४८ ||
सत्पुरुष जो यह कहा करते थे कि प्राणियोंके साथ अपने पूर्वोपार्जित शुभ और अशुभ कर्म ही केवल जाते हैं, वह उनका कहना सत्यताको प्राप्त हुआ है ॥ ४९ ॥
Jain Education International
इस नरकरूप समुद्रसे केवल एक धर्म ही उद्धार कर सकता है । परन्तु मुझ जैसे पापीने उस धर्मका उपार्जन योग्य रीतिसे स्वप्न में भी नहीं किया है ॥ ५०॥
१. Y प्रेरका जनाः.... .मायाता. . त्रपाः । २. M N तथैते ।
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org