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९. सत्यव्रतम्
572 ) न्यञ्चेन्मस्तकमौलिरत्नविकटज्योतिश्छटाडम्बरैदेवाः पल्लवयन्ति यच्चरणयोः पीठं लुठन्तो ऽप्यमी । कुर्वन्ति ग्रह लोकपालखचरा यत्प्रातिहार्यं नृणां शाम्यन्ति ज्वलनादयश्च यदिदं तत्सत्यवाचः फलम् ||४२ इति ज्ञानार्णवे योगप्रदीपाधिकारे आचार्यश्रीशुभचन्द्रविरचिते सत्यव्रतप्रकरणम् ||९||
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(572) न्यञ्चन्मस्तक - अमी ग्रहलोकपालखचराः देवाः । नृणां मनुष्याणां प्रातिहार्यं कुर्वन्ति । किं कुर्वन्तः । यच्चरणयोः पीठे* लुठन्तो ऽपि । *चञ्चन्मस्तकमौलिरत्न विकटद्योतिच्छटा डम्बरैः चञ्चलमस्तकमुकुटरत्नविस्तारिकान्तिच्छटाडम्बरैः पल्लवयन्ति नवपल्लवयुक्तं करोति । च पुनः । ज्वलनादयो ऽग्निप्रमुखाः शाम्यन्ति । यत् यस्मात् तदिदं सत्यवाचः फलम् । इति सूत्रार्थः ॥४२॥ इति श्रीशुभचन्द्राचार्य - विरचिते ज्ञानार्णवसूत्रे योगप्रदीपाधिकारे पण्डितनयविलासेन साहपासा तत्पुत्र साहटोडर तत्कुलकमलदिवाकर साहऋषिदास स्वश्रवणार्थं पण्डित जिनदासोद्यमेन मिथ्यावादप्रकरणं समाप्तम् ॥९॥
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समजनिष्ट पुरा किल पूर्वजः सुकृतभावितमानसपार्श्वकः । तदिकपुत्रवरो गुणटोडर: जयतु तत्र न ऋषिदासकः ॥ १॥ इत्याशीर्वादः । अथ सत्यव्रतानन्तरं यथोद्देशन्यायेन तृतीयव्रतमाह ।
पढ़े हैं, इसलिए आप उस विषय में जो गुरुका अभिप्राय रहा हो उसे आगमके अनुसार बतलाइए । तब वसुने मूढ सत्य में विमूढ होकर गुरुके वाक्यका स्मरण करते हुए भी यह कहा कि नारदने युक्तियुक्त उपन्यास किया है, परन्तु पर्वतने जो गुरुका कहना था उसे ही कहा है । यह कहते ही वसु राजाका वह स्फटिक मणिमय सिंहासन पृथिवीके भीतर धँस गया और वसु राजा मरकर इस असत्य भाषणजनित पापके प्रभाव से सातवीं पृथिवीमें स्थित महारौरव नामक नारकबिल में नारकी उत्पन्न हुआ || ४१ || देखिए हरिवंशपुराण १७,३७-१५२ ।
वे देव जो चरणोंमें लोटते हुए उनके ( सत्यभाषी जनके ) पादपीठको नीचे झुके हुए मस्तकपर स्थित मुकुटके रत्नोंकी प्रभाके समूह के आरम्भसे पल्लवित ( अंकुरित या विस्तृत ) करते हैं; ग्रह, लोकपाल एवं विद्याधर जो मनुष्योंके द्वारपालका काम करते हैं, तथा अग्नि आदि जो शान्त हो जाती हैं; यह सब उस सत्य वचनका ही फल है ॥४२॥
इस प्रकार आचार्य श्री शुभचन्द्र विरचित ज्ञानार्णव योगप्रदीपाधिकार में सत्यव्रतप्रकरण समाप्त हुआ ||९||
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१. All others except PM N चञ्चन्मस्तक । २. All others except P M N ] पीठे । ३. All others except P MNLJ दयश्च नियतं ।
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