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[२९.५८
ज्ञानार्णवः 1570 ) समभ्यस्तं सुविज्ञातं निर्णीतमपि तत्त्वतः । .
अनादिविभ्रमात्तत्त्वं' प्रस्खलत्येव योगिनः ॥५८ 1571 ) अचिदृश्यमिदं रूपं न चिदृश्यं ततो वृथा ।
मम रागादयो ऽर्थेषु समत्वं संश्रयाम्यतः ॥५९ 1572 ) करोत्यज्ञो ग्रहत्यागौ बहिरन्तस्तु तत्ववित् ।
शुद्धात्मा न बहिर्नान्तस्तौ विदध्यात् कथंचन ॥६० 1573 ) वाक्कायाभ्यां पृथक् कृत्वा मनसात्मानमभ्यसेत् ।
वाक्तनुभ्यां प्रकुर्वीत कार्यमन्यन्न चेतसा ॥६१
1570) समभ्यस्तं-योगिनः तत्त्वं प्रस्खलत्येव। कस्मात् । अनादिविभ्रमात् । कीदृशं तत्त्वम् । समभ्यस्तं सुविज्ञातम् । तत्त्वतो निर्णीतम् । इति सूत्रार्थः ।।५८॥ अथात्मस्वरूपमाह ।
1571) अचिदृश्यम्-इदं रूपम् अचिदृश्यम् । मम रागादयो अर्थेषु स्वरूपं संश्रयामि। इति सूत्रार्थः ।।५९।। अथात्मनो द्वैविध्यमाह।
_____1572) करोत्वज्ञः-अज्ञो मूर्खः ग्रहत्यागौ करोति बहिरन्तस्तु । तत्त्ववित् शुद्धात्मा न बहिर्नान्तः कथंचन पुरुषः विदध्यात् । इति सूत्रार्थः ॥६०॥ अथवा
1573) वाक्कायाभ्यां-मनसा आत्मानमभ्यसेत् । किं कृत्वा । वाक्कायाभ्यां पृथक् कृत्वा । अन्यत्कार्यं वाक्तनुभ्यां प्रकुर्वीत । न चेतसा । इति सूत्रार्थः ॥६१।। अथात्मवेदिनां स्वरूपमाह ।
जिस योगीके तत्त्वका-आत्मस्वरूपका-भले प्रकार अभ्यास किया गया है, जिसे समीचीनरूपसे जान लिया है, और जिसका यथार्थरूपसे निर्णय भी कर लिया है; वह भी अनादिकालकी विपरीतबुद्धिके संस्कारवश भ्रष्ट हो जाता है ॥५८॥
जो यह रूप (शरीरादि) दिख रहा है वह तो चेतनासे रहित ( जड़ ) है और जो रूप (आत्मा) चेतनासे संयुक्त है वह दृश्य नहीं है-उसे इन्द्रियोंके द्वारा ग्रहण नहीं किया जा सकता है। इसलिए शरीरादि बाह्य पदार्थों के विषयमें मुझे राग-द्वेषादि करना व्यर्थ हैदश्यमान जडपदार्थोंसे राग-द्वेष करना मझे योग्य नहीं है। इस कारण अब मैं समता भावका आश्रय लेता हूँ-बाह्य पर पदार्थोंसे ममत्वबुद्धिको छोड़कर आत्मस्वरूपमें स्थित होता हूँ ॥५९।।
अज्ञानी बहिरात्मा बाह्यमें ग्रहण व त्यागको करता है और तत्त्वका वेत्ता अन्तरात्मा अभ्यन्तर ग्रहण व त्यागको करता है। परन्तु शुद्धात्मा (परमात्मा) न तो बाह्यमें ग्रहण व त्यागको किसी प्रकारसे करता है और न अभ्यन्तरमें भी ॥६॥
आत्माको वचन और शरीरसे पृथक करके उसका मनसे अभ्यास करना चाहिए तथा अन्य कार्यको वचन और शरीरके द्वारा ही करना चाहिए, उसे मनसे नहीं करना . चाहिए। अभिप्राय यह है कि प्रयोजनके वश शरीर और वचनसे व्यवहारकायको करते हुए भी मनको निरन्तर आत्मस्वरूपकी ओर ही प्रवृत्त करना चाहिए ॥६१।।
१. M विभ्रमास्तत्त्वं । २.४ ततो ऽन्यथा। ३. All others except P स्वरूपं for समत्वं । ४. LS FJ R म्यहं । ५.SJR बहिन्ति, F बहिर्जातः ।
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