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ज्ञानार्णवः
1585 ) चलमप्यचलाकोरं जगद्यस्यावभासते । ज्ञानभोगिक्रियाहीनं स एवास्कन्दति ध्रुवम् ||७३ 1586 ) तनुत्रयावृतो देही ज्योतिर्मयवपुः स्वयम् |
न वेति यावदात्मानं क्व तावद् बन्धविच्युतिः ॥७४ 1587 ) गलन्मिलदणुत्रातसंनिवेशात्मकं वपुः । वेति मूढस्तदात्मानमनायुत्पन्नविभ्रमात् ॥ ७५
1585) चलमप्यचल – यस्य योगिनः चलमपि जगत् अचलप्रख्यं * विभासते प्रतिभासते । ज्ञातयोगः * क्रियाहीनः स एव पुरुषः शिवं मोक्षमास्कन्दति आश्लेषयति । इति सूत्रार्थः ॥ ७३ ॥ अथात्मज्ञानाभावे कर्मसद्भावः ।
[ २९.७३
1586 ) तनुत्रयावृतः - देही प्राणी तनुत्रयावृतः औदरिकादिशरीरत्रययुक्तः यावदात्मानं न वेत्ति । स्वयमात्मना ज्योतिर्मयं ज्योतिःस्वरूपं तावद्वन्धच्युतिः बन्धाभावः । इति सूत्रार्थः ||७४ || अथ शरीरपरमाणुनिष्पन्नत्वं दर्शयति ।
1587) गलन्मिलत् - वपुः गलन्मिलदणुव्रात- गलन्तो मिलन्तश्च ये परमाणवस्तेषां व्रातः समूहः तस्य संनिवेशात्मकं मेलापकं मूढो तदात्मानं वेत्ति । कस्मात् । अनाद्युत्पन्नविभ्रमात् मिथ्यात्वात् । इति सूत्रार्थः ॥ ७५ || आत्मस्थितेर्मुक्तिसद्भावत्वं दर्शयति ।
जिसके लिए जगत् - शरीर आदि - अस्थिर होता हुआ भी स्थिर आकारवाला प्रतीत होता है वही ज्ञान, भोग और क्रियासे रहित शाश्वतिक पदको प्राप्त करता है । विशेषार्थअभिप्राय यह है कि यद्यपि चेतन आत्मासे अधिष्ठित होनेके कारण शरीर आदि चंचलक्रियायुक्त - दिखते हैं, फिर भी जिस अन्तरात्माके लिए आत्मा और शरीरादिके भिन्न स्वरूपका ज्ञान हो चुका है वह उन शरीरादिको काष्ठ-पाषाणादिके समान ज्ञान, भोग और परिस्पन्दात्मक क्रियासे रहित ही अनुभव करता है । इसीलिए उसे स्थिर पदस्वरूप मोक्ष प्राप्त हो जाता है || ७३ ||
स्वयं ज्ञानमय शरीर से संयुक्त होकर भी बाह्यमें तीन शरीरोंसे - औदारिक अथवा वैक्रियिक में से कोई एक तथा तैजस और कार्मण इन पुद्गलमय शरीरोंसे - आच्छादित रहनेवाला प्राणी जब तक अपने इस आत्मस्वरूपको नहीं जानता है तब तक उसके बन्धका बिच्छेद ( मुक्ति ) कहाँ हो सकता है ? कभी नहीं हो सकता है ||७४ |
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अज्ञानी बहिरात्मा अनादिकालसे उत्पन्न हुई भ्रान्तिके कारण बिछुड़ते और मिलते हुए परमाणुओं के समूह के रचनास्वरूप शरीरको आत्मा जानता है ।। ७५ ।।
१. All others except P 'चलाप्रख्यं .... ज्ञानयोग, QM भोग । २. M स्कन्धते शिवं, LN F X स्कन्दते शिवं, QSTJY स्कन्दति शिवम् ।
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