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३१८ ज्ञानार्णवः
[ १८.६८958 ) 'अपारयन् बोधयितुं पृथग्जनानसत्प्रवृत्तेष्वपि नासदाचरेत् ।
अशक्नुवन् पीतविषं चिकित्सितुं पिबेद्विषं कः स्वयमप्यबालिशः ॥६८ 959 ) [न चेदयं मां दुरितैः प्रकम्पयेदेहं यतेयं प्रशमाय नाधिकम् ।
अतोऽतिलाभोऽयमिति प्रतयन् विचाररूढा हि भवन्ति निश्चलाः॥६८*१] चित्तद्रोहम् उपैति । अपारसंसारे परायणात्मनां स्थितात्मनां तेषां, मम वा विशेषणम् । इति सूत्रार्थः ॥६७॥ अथ पुनरेतदेवाह ।
958 ) अपारयन्-जनान् पृथग् बोधयितु ज्ञापयितुम् अपारयन् असमर्थयन् । असत्प्रवृत्तिषु विरुद्धतया प्रवर्तमानेषु असत् नाचरेत् । पीतविषं चिकित्सितुम् उपचरितुम् अशक्नुवन् । कः । बालिशः मूर्खः । स्वयमपि विषं पिबेत् । इति सूत्रार्थः ॥६८॥ अथ यथा शत्रु प्रकम्पयति, तदा प्रशमो वर्धत इत्याह । ___959 ) न चेदयं-अयं शत्रुः मां चेत् दुरितैः पापैर्न विकम्पयेत् । अहम् अधिकं प्रशमाय न यतेयम् । अतः कारणात् अयमतिलाभ इति प्रतयन् विचारयन् । हि निश्चितम् । विचाररूढा विचारवन्तः निश्चला भवन्ति । इति सूत्रार्थः ॥६८५१॥ अथ केषां संतोषार्थ धनादिकं त्यजतीत्याह ।
घाट
मन द्वेषभावको प्राप्त होता है तो फिर अपरिमित संसार-परिभ्रमणमें तत्पर रहनेवाले उन लोगोंसे मुझमें विशेषता ही क्या रह जाती है ? कुछ भी नहीं ॥६॥
सज्जन मनुष्य कुमार्गमें प्रवृत्त होनेपर भी यदि अन्य जनोंके प्रबोधित करने में असमर्थ होता है तो उनके समान उसे स्वयं निन्द्य आचरण नहीं करना चाहिए। यह ठोक
क्योंकि ऐसा कौन-सा चतर वैद्य है जो विषको पिये हए अन्य मनुष्यकी चिकित्सा करने में असमर्थ होकर स्वयं भी विषको पीता हो ? अर्थात् जिस प्रकार कोई भी बुद्धिमान् वैद्य विषका पान करनेवाले अन्य मनुष्यके उस विषकी यदि चिकित्सा नहीं कर सकता है तो वह स्वयं कुछ विषका पान नहीं करता है उसी प्रकार यदि कोई साधु कुमार्गमें प्रवृत्त रहनेवाले अन्य मनुष्योंका उससे उद्धार नहीं कर सकता है तो उसका स्वयं कुमार्गमें प्रवृत्त होना-स्वयं क्रोधादि कषायोंके वशीभूत होना-उचित नहीं है ।।६८॥ . यदि यह मुझे पापोंसे कम्पायमान नहीं करता है-'यह पूर्वकृत अशुभ कर्मका फल है' इस विचारको उत्पन्न नहीं कराता है। अथवा वध-बन्धनादिरूप दुर्व्यवहारोंसे यदि क्षुब्ध नहीं करता है--तो मैं राग-द्वेषकी शान्तिके लिए अधिक प्रयत्न नहीं कर सकता था। यह मेरे लिए बड़ा भारी लाभ है। इस प्रकार विचार करता हुआ साधु क्रोधादि विकारों को जीतता है। ठीक है--जो मनुष्य विचारमें तत्पर होते हैं वे अपने कार्यमें दृढ़ रहा करते हैं ।।६८*१॥
४. N दुरिते।
१. P writes this verse on the margin | २..J प्रवृत्तिष्वपि । ३. P om. | ५. N TJ X विकम्पये।
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