Book Title: Gyanarnav
Author(s): Shubhachandra Acharya, Balchandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 577
________________ XXVII [ प्रत्याहारः] 1456 ) समाकृष्येन्द्रियार्थेभ्यः साक्षं' चेतः प्रशान्तधीः । यत्र यत्रेच्छया धत्ते स प्रत्याहार उच्यते ॥१ 1457 ) निःसंगः संवृतस्वान्तः कूर्मवत्संवृतेन्द्रियः ।। ___यमी समत्वमापन्नो ध्यानतन्त्रे स्थिरीभवेत् ।।२।। किं चं 1458 ) गोचरेभ्यो हृषीकाणि तेभ्यश्चित्तमनाकुलम् ! पृथक्कृत्य वशी धत्ते ललाटे ऽत्यन्तनिश्चलम् ॥३ __1456 ) समाकृष्य-स प्रत्याहार उच्यते । स इति कः । इन्द्रियेभ्यः समाकृष्य यत्र यत्रेच्छया "साक्षाच्चेतः धत्ते । कीदृशः । प्रशान्तधीः । इति सूत्रार्थः ॥१।। अथ ध्यानयोग्यमाह । 1457 ) निःसंगः--यमी व्रती समत्वमापन्नः । ध्यानतन्त्रे ध्यानविषये स्थिरीभवेत् । पूर्वाध सुगमम् । इति सूत्रार्थः ।।२।। किं च युक्त्यन्तरमाह। 1458 ) गोचरेभ्यः-वशी गोचरेभ्यो हृषीकाणि इन्द्रियाणि । चित्तं पृथक् कृत्वा। चित्तं तेभ्यः अनाकुलं धत्ते ललाटे। कीदृशं चेतः। अनाकुलम् । इति सूत्रार्थः ॥३॥ अथ प्राणायामप्रत्याहारयोः पृथक् फलमाह । अतिशय शान्तबुद्धि योगी इन्द्रियोंके साथ मनको भी इन्द्रियविषयोंकी ओरसे-स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण व शब्दकी ओरसे-खींचकर इच्छानुसार जहाँ-जहाँ धारण करता है उसे प्रत्याहार कहते हैं ॥११॥ जो मुनि परिग्रहसे निर्ममत्व हो चुका है, जिसका मन सावद्य प्रवृत्तिसे रहित है तथा जिसकी इन्द्रियाँ कछुएके समान संकुचित हैं-स्वाधीन हो चुकी हैं वह समताभावको प्राप्त होता हुआ ध्यानके सिद्धान्तमें-उसकी सिद्धिमें-दृढ़ होता है ।।२।। और भी, जितेन्द्रिय योगी विषयोंसे इन्द्रियोंको तथा इन्द्रियोंसे मनको पृथक् करकेउनकी ओरसे विमुख करके-आकुलतासे रहित हुए उस मनको अतिशय स्थिरतापूर्वक मस्तकमें धारण करता है ॥३॥ १. F साक्षात्, K°न्द्रियेभ्यस्तत्साक्षात् । २. M धत्ते तत्र तत्र स्थिरीभवेत, N धत्ते प्रत्याहारः स कीर्तितः, T प्रत्याहारः स । ३-४. M निःशङ्कः........शमत्व । ५. P M किं च । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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