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२७. प्रत्याहारः
1467 ) 'निरुध्य करणग्रामं समत्वमवलम्ब्य च ।
ललाटदेश संलीनं विदध्यानिश्चलं मनः ||१२|| अथवा1468 ) नेत्रद्वन्द्वे श्रवणयुगले नासिकाग्रे ललाटे
वक्त्रे नाभौ शिरसि हृदये तालुनि भ्रूयुगान्ते । ध्यानस्थानान्यमलमतिभिः कीर्तितान्यत्र देहे तेष्वेकस्मिन् विगतविषयं चित्तमालम्वनीयम् ||१३ 1469 ) स्थानेष्वेतेषु विश्रान्तं मुनेर्लक्ष्यं वितन्वतः । उत्पद्यन्ते स्वसंवित्तेर्बहवो ध्यानप्रत्ययाः || १४
1467 ) निरुध्य - करणग्रामम् इन्द्रियसमूहम् । इति सूत्रार्थः ॥ १२ ॥ अथ चित्तस्य ध्यानस्थानमाह ।
1468 ) नेत्रद्वन्द्वे—अमलमतिभिः निर्मलबुद्धिभिः । अत्र देहे कीर्तितानि । तेषु स्थानेषु एकस्मिन् स्थाने विगतविषयं चित्तमालम्बनीयम् । शेषं सुगमम् । इति सूत्रार्थः ॥१३॥ अथोपसंहरति । 1469 ) स्थानेषु - एतेषु स्थानेषु विश्रान्तं मुनेर्लक्ष्यं वितन्वतः विस्तारयतः स्वसंवित्तेर्ध्यानप्रत्यया ध्यानस्वरूपा उत्पद्यन्ते । इति सूत्रार्थः ॥ १४ ॥
उसके भेद और प्रक्रियाका ही वर्णन किया है, परन्तु उसके विशेष फलका कुछ वर्णन नहीं किया है । इसका कारण यह है कि उसका प्रयोजन दर्शक जनोंको केवल आश्चर्यचकित करना ही है, इसके अतिरिक्त आत्माके लिए हितकर उसका अन्य कोई प्रयोजन नहीं है । प्रत्युत इसके वह शारीरिक पीड़ा और मानसिक संक्लेशका कारण होनेसे आत्मघातक भी है । इसलिए उसकी ओरसे विमुख करते हुए यहाँ योगीको अपनी इन्द्रियों और मनको वशमें करनेकी ही प्रेरणा की गयी है ॥ ११ ॥
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इन्द्रियसमूहका निरोध करके उन्हें अपने-अपने अभीष्ट विषयसे विमुख करके - समताभावका आलम्बन लेता हुआ योगी मनको भालप्रदेशमें भलीभाँति लीन करके उसे स्थिर करे ||१२||
अथवा - निर्मल बुद्धिवाले महर्षियोंने इस शरीरमें दोनों नेत्र, दोनों कान, नासिकाका अग्रभाग, मस्तक, मुख, नाभि, शिर, हृदय, तालु और दोनों भ्रुकुटियोंका अन्तभाग; इन दस अवयवों में ध्यानके स्थान कहे हैं । उनमें से किसी एक स्थानमें विषयोंसे रहित मनको स्थिर करना चाहिए ॥१३॥
उपर्युक्त इन स्थानों में विश्रामको प्राप्त हुए, मनको लक्ष्य बनानेवाले मुनिके आत्मसंवेदनसे बहुत से ध्यानके प्रत्यय उत्पन्न होते हैं || १४ ||
१. Y interchanges Nos. 11-12 । २. PMY अथवा | ३. N गात्रे for देहे । 'तेष्वविश्रान्तं ।
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