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ज्ञानार्णवः
970 ) यः श्वश्रान्मां समाकृष्य क्षिप्यत्यात्मानमस्तधीः । वधबन्धनिमित्ते ऽपि कस्तस्मै विप्रियं चरेत् ॥ ७९ 971 ) यस्यैव कर्मणो नाशाज्जन्मदाहः प्रशाम्यति ।
तच्चेद्भुक्तिं समायातं सिद्धं तर्ह्यद्य वाञ्छितम् ||८० 972 ) अनन्तक्लेश सप्तार्चिः प्रदीप्तेयं भवाटवी । तत्रोत्पन्नैर्न किं सह्यस्तदुत्थो व्यसनोत्करः ॥८१
970 ) यः श्वभ्रान्मां - यः पुमान् श्वभ्रान्नरकान्मां समाकृष्य निष्कास्य । आत्मानं वधबन्धनिमित्ते वधबन्धकारणे ऽपि क्षिपति । कीदृशः । अस्तधीनंष्टबुद्धिः । तस्मै उपकारिणे को विप्रियं चरेत् विरूपम् आचरेत् । इति सूत्रार्थः ॥ ७९ ॥ अथ कर्मणो जन्मनाशमाह ।
971 ) यस्यैव -- यस्य पूर्वकृतस्य कर्मणो नाशात् । एवकारः निश्चयार्थः । जन्मदाहः भवसंतापः प्रशाम्यति । च पुनः । चेत्तत्कर्म भुक्ति समायातम् उदयप्राप्तं तर्हि अद्य जन्मति वाञ्छितं सिद्धमिति सूत्रार्थः ||८०|| अथ संसारस्य क्लेशनाश्यतामाह ।
[ १८.७९
972 ) अनन्त - इयं भवाटवी भवारण्यम् अनन्तक्रेशसप्ताचिः प्रदीप्ता अनन्तवलेशाग्निज्वलितः । तत्रोत्पन्नैर्भवाटवजातेः तदुत्यो अनन्तक्लेशाग्निसमुत्यो व्यसनोत्करः कष्टसमूहः किं न सह्यः न सहनीयः । इति सूत्रार्थः ॥ ८१ ॥ अथ यदि दुर्जना न भवन्ति तदा कर्म कथं भोक्तव्यमित्याह ।
जो मूर्ख मनुष्य वध-बन्धनादिके निमित्तको उपस्थित करके भी मुझे नरककी ओर से खींचकर अपने आपको नरकमें डालता है उसके प्रति अप्रिय ( क्रोधादिस्वरूप ) व्यवहार कौन करता है ? कोई भी बुद्धिमान् मनुष्य ऐसे उपकारी प्राणीके ऊपर क्रोध नहीं किया करता है ||७९ ||
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जिस कर्म के हो नाशसे संसारका सन्ताप शान्त होता है वह यदि भोगने में आ रहा है - इन वधन्बन्धनादि उपद्रवोंको शान्तिपूर्वक सह लेनेपर यदि स्वयं निर्जीर्ण हो रहा है - तो मेरा अभीष्ट ( कर्मनाश ) आज ही सिद्ध हो जाता है ||८०||
यह संसाररूप वन अपरिमित कष्टरूप अग्निसे प्रज्वलित हो रहा है । उस संसाररूप वनके भीतर उत्पन्न हुए प्राणियोंको उक्त कष्टरूप अग्निसे उत्पन्न होनेवाले दुखसमूहको क्या नहीं सहना चाहिए ? सहना ही चाहिए ॥ विशेषार्थ - अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार जो वन सब ही ओरसे अग्निसे प्रज्वलित हो रहा है उसके भीतर उत्पन्न होनेवाले प्राणियोंको अग्निसे उत्पन्न दुखको सहना ही पड़ता है उसी प्रकार सर्वथा दुखमय इस संसार में भी जन्म लेनेवाले प्राणियों को जब वध-बन्धनादिरूप अनेक कष्टोंको सहना ही पड़ता है तब क्यों न उन्हें राग-द्वेषसे रहित होकर शान्तिके साथ सहा जाय ? कारण कि उन्हें शान्तिपूर्वक सह लेनेसे नवीन कर्मोंके आस्रवका निरोध ( संवर) होता है और इसके विपरीत उससे व्याकुल होकर राग-द्वेषादिके वशीभूत होनेपर नवीन कर्मोंका बन्ध होता है जो भविष्य में भी दुखका कारण बननेवाला है ॥८१॥
१. T तस्मिन् । २. V Ms. ends here । ३. All others cxcept PM भुक्तिसमा ।
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