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[ १७.४
ज्ञानार्णवः 867 ) यद्याशा शान्तिमायाता तदा सिद्धं समीहितम् ।
____ अन्यथा भवसंभूतो दुःखवार्धिदुरुत्तरः ।।४ 868 ) यमप्रशमराज्यस्य सबोधार्कोदयस्य च ।
विवेकस्यापि भूतानामाशैव प्रतिबन्धिका ॥५ 869 ) आशामपि न सर्पन्तीं यः क्षणं रक्षितुं क्षमः ।
तस्यापवर्गसिद्धयर्थं वृथा मन्ये परिश्रमम् ।।६ 870 ) आशैव मदिराक्षाणामाशैव विषमञ्जरी ।
आशामूलानि दुःखानि प्रभवन्तीह देहिनाम् ।।७
867 ) यद्याशा-साधनाशा यदि शान्तिमायाता प्राप्ता। शेषं सुगमम् ॥४॥ अपाशाया धनिषेधकत्वमाह ।
868 ) यमप्रशम-लोकानाम् आशा एव यमप्रशमराज्यस्य व्रतक्षान्तिराज्यस्य प्रतिषेधिका। च पुनः । सद्बोधार्कोदयस्य सद्ज्ञानसूर्यस्य । अपि पक्षान्तरे । विवेकस्य प्रतिषेधिका । इति सूत्रार्थः॥५॥ अथाशां यो न रुन्धति तदाह ।
____869) आशामपि-यः पुमान् आशां धनाशां विसर्पन्ती रक्षितुं क्षणमपि न क्षमः समर्थो भवति । अहं मन्ये । तस्य पुरुषस्य अपवर्गसिद्ध्यर्थं मुक्तिसाधनाय वृथा परिश्रमः। इति सूत्रार्थः ॥६॥ [आशायाः सर्वदुःखानि प्रभवन्तीत्याह ।
870 ) आशैव-आशा एव अक्षाणाम् इन्द्रियाणां मदिरा मदोत्पादिका । विषमञ्जरी विषवल्ली । अन्यत्सुगमम् ।।७।। ] अथ धनाशात्यागफलमाह ।
यदि वह आशा शान्तिको प्राप्त हो चुकी है तो फिर प्राणीका मनोरथ सिद्ध हो चुकातब उसको मुक्तिप्राप्ति में सन्देह नहीं रहता। और इसके विपरीत यदि वह आशा नष्ट नहीं हुई है तो फिर प्राणीका संसारपरिभ्रमणसे उत्पन्न हुआ दुःखरूप समुद्र दुलंध्य है-उसके संसारपरिभ्रमणका दुःख नष्ट होनेवाला नहीं है ।।४।।
प्राणियोंके संयम व प्रशमरूप राज्यको, सम्यग्ज्ञानरूप सूर्य के उदयको तथा विवेकको भी रोकनेवाली उनकी वह आशा ही है ।।५।।
___जो उस फेलनेवाली आशासे क्षणभर भी अपनी रक्षा नहीं कर सकता है उसका मुक्तिकी प्राप्ति के लिए किया जानेवाला परिश्रम व्यर्थ है, ऐसा मैं मानता हूँ। अभिप्राय यह है कि जब तक मनुष्य की विषयतृष्णा नष्ट नहीं होती है तब तक वह संयम आदिका परिपालन कर ही नहीं सकता है। फिर भी यदि वह व्रत व तपश्चरण आदिके कष्टको कुछ सहता भी है तो भी उससे अभीष्ट प्रयोजन सिद्ध नहीं हो सकता है ।।६।।
आशा इन्द्रियों को उन्मत्त करनेवाली मदिरा ही है तथा वह आशा विपकी लता ही
१. All others except P M N T तथा सिद्धं । २. N प्रतिबनिका, All others except PN प्रतिषेधिका। ३. M N परिश्रमः । ४. Jom verse |
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