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१२. स्त्रीस्वरूपम् 680 ) वन्ध्याङ्गजस्य राज्यश्रीः पुष्पश्रीगंगनस्य च ।
स्याद्देवान्न तु नारीणां मनःशुद्धिमेनागपि ॥४० 681 ) कुलद्वयमहाकक्षं भस्मसात् कुरुते क्षणात् ।
दुश्चरित्रसमीरालीप्रदीप्तो वनितानलः ॥४१ 682 ) सुराचल इवाकम्पा अगाधा वार्धिवद् भृशम् ।
नीयन्ते ऽत्र नराः स्त्रीभिरवधृति क्षणान्तरे ॥४२ 683 ) वित्तहीनो जरी रोगी दुर्बलः स्थानविच्युतः।
कुलीनाभिरपि स्त्रीभिः सद्यो भर्ता विमुच्यते ।।४३ 680 ) वन्ध्याङ्गजस्य-वन्ध्याङ्गजस्य वन्ध्यासुतस्य राज्यश्री: दैवात् भाग्यात् स्यात् । च पुनः । गगनस्य आकाशस्य पुष्पश्रीः दैवात् स्यात् । न तु स्त्रीणां मनागपि स्तोकमपि मनःशुद्धिः स्यात् ॥४०॥ अथ तासां स्वरूपमाह ।।
681 ) कुलद्वय-वनितानल: स्त्रोवह्निः कुलद्वयमहाकक्षम् उभयकुलतृणसमूहं भस्मसात् कुरुते क्षणात् । कीदृशो वनितानलः। दुश्चरित्रसमोरालिप्रदीप्तः दुश्चारपवनसमूहप्रदीप्तः । इति सूत्रार्थः ।। ४१।। अथ तासां निष्कम्पादिगुणोपायमाह ।
682 ) सुराचल:-अत्र जगति स्त्रीभिः नराः अवधूति भस्म क्षणान्तरे नीयन्ते प्राप्यन्ते । शेषं सुगमम् ।।४२।। अथ ताभिः वित्तहोनादियुक्तो भर्ता त्याज्यः इत्याह ।
683 ) वित्तहीनो-शारीरबलरहितः स्थानच्युतः स्थानभ्रष्टः। शेषं सुगमम् ॥४३।। अथ नराणां स्त्रियः दुःखहेतवः इत्याह ।
संयोगसे बन्ध्या स्त्रीके पुत्रको राज्यलक्ष्मी तथा आकाशको पुष्पोंकी शोभा भले ही प्राप्त हो जावे, परन्तु स्त्रियोंके मनकी शुद्धि थोड़ी सी भी नहीं हो सकती है। अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार असम्भव बन्ध्यापुत्रके कभी राज्यलक्ष्मीकी सम्भावना नहीं है तथा आकाशके कभी फूलोंकी सम्भावना नहीं है उसी प्रकार स्त्रियों के मनमें शुद्धि (निर्मलता) की सम्भावना नहीं है ॥४०॥
स्त्रीरूप अग्नि दुराचरणरूप वायुके समूहसे प्रज्वलित होकर दोनों ही कुलों ( मातृवंश व पतिका वंश ) को क्षणभरमें भस्म कर देती है ॥४॥
___ जो मनुष्य सुमेरुके समान निष्कम्प ( स्थिर ) और समुद्र के समान अतिशय गम्भीर होते हैं उन्हें भी विचलित करके स्त्रियाँ क्षणभरके भीतर तिरस्कारको प्राप्त कराती हैं। अभिप्राय यह है कि जो मनुष्य अतिशय गम्भीर होते हैं उन्हें भी स्त्रियाँ अपने वशमें करके अपमानित किया करती हैं ॥४२॥
यदि पति धनहीन, वृद्ध, रोगी, दुर्बल और स्थानसे रहित होता है तो उसे कुलीन स्त्रियाँ भी शीघ्र छोड़ दिया करती हैं। फिर नीच स्त्रियोंका तो कहना ही क्या है-यदि वे उसे छोड़ देती हैं तो इसमें आश्चर्य कुछ भी नहीं है ।।४३।। १. L वन्ध्यासुतस्य । २. M°रवधूतं । ३. MN ज्वरी ।
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