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ज्ञानार्णवा
[१५.१६
786 ) अनुपास्यैव यो वृद्धमण्डली मन्दविक्रमः ।
जगत्तत्त्वस्थितिं वेत्ति से मिमीते नमः करैः ॥१६ 787 ) 'सुधांशुरश्मिसंपर्काद्विसर्पति यथाम्बुधिः ।
तथा सद्वृत्तसंसर्गान्नृणां प्रज्ञापयोनिधिः ॥१७ 788 ) नैराश्यमनुवध्नाति विध्याप्याशाहविर्भुजम् ।
आसाद्य यमिनां योगी वाक्पथातीतसंयमम् ।।१८ 789 ) वृद्धानुजीविनामेव स्युश्चरित्राभिसंपदः ।
भवत्यपि च निर्लेपं मनः क्रोधादिकश्मलम् ॥१९
786 ) अनुपास्यैव-यो मनुष्यः वृद्धमण्डलीम् अनुपास्यैव अदृष्ट्वैव जगत्तत्त्वस्थिति भुवनतत्त्वमर्यादां वेत्ति जानाति । कीदृशः । मदविक्रमः मदबलवान् । स करैर्हस्तैनभः आकाशं मिमीते। इति सूत्रार्थः ॥१६।। अथ सत्संसर्गात् प्रजावृद्धिमाह ।
787 ) सुधांशु-यथा अम्बुधिः समुद्रः *शीतांशुरश्मिसंपर्कात् चन्द्रकिरणसंबन्धात् विसर्पति । [ तथा ] सवृत्तसंसर्गात् सच्चारित्रसंबन्धात् । इति सूत्रार्थः ॥१७॥ अथ योगिकर्तव्यमाह।
__788 ) नैराश्यमनु-योगी नैराश्यं निर्लोभतामनुबध्नाति बन्धयति । किं कृत्वा । यमिनां वतिनां वाक्पथातीतसंयमं वचनागोचरसंयमम् आसाद्य प्राप्य । आशाहविर्भुजं वाच्छाग्नि विध्याप्य उपशमयित्वा । इति सूत्रार्थः ।।१८।। अथ सेवतां फलमाह ।।
789 ) वृद्धानुजीविनां-वृद्धानुजीविनां वृद्धसेवावतां चारित्रादिसंपद: चारित्रलक्ष्म्यः स्युः।
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जो हीन पराक्रमवाला मनुष्य वृद्धसमूहकी उपासना न करके ही संसारके यथार्थ स्वरूपको जानना चाहता है वह मानो हाथों के द्वारा आकाश को मापना चाहता है। अभिप्राय यह कि जिस प्रकार अनन्त आकाश का हाथों के द्वारा मापा जाना सम्भव नहीं है उसी प्रकार वृद्ध सेवाके बिना तत्त्वका परिज्ञान होना भी सम्भव नहीं है ॥१६॥
जिस प्रकार चन्द्रकी किरणोंके संसर्गसे समुद्र विस्तारको प्राप्त होता है उसी प्रकार सदाचारी जनोंके संसर्गसे मनुष्योंका बुद्धिरूप समुद्र भी विस्तारको प्राप्त होता है ॥१७॥
योगी अनिर्वचनीय मुनियों के संयमको पाकर आशारूप अग्निको बुझाता हुआ निराशभावका अनुसरण करता है। अभिप्राय यह है कि प्राणीकी विषयतृष्णा तभी नष्ट होती है जब कि वह मुनिव्रत (सकलचारित्र ) को स्वीकार करता है ॥१८॥
चारित्ररूप सम्पदाएँ उनको हो प्राप्त होती हैं जो कि वृद्धजनके आश्रयमें रहकर
१. M N L T
१. N न मिमीते । १. All others except P शीतांशु । २. M N रश्मिसंस्पति । चरित्रादि; SF V]X Y R चारित्रादि ।
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