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६. दर्शनविशुद्धिः 415 ) तत्र जीवादयः पञ्च प्रदेशप्रचयात्मकाः ।
कायाः कालं विना ज्ञेया भिन्नप्रकृतयोऽप्यमी ॥२६ 416 ) अचिद्र पा विना जीवममूर्ताः पुद्गलं विना ।
पदार्था वस्तुतः सर्वे स्थित्युत्पत्तिव्ययात्मकाः ॥२७
415 ) तत्र जीवादयः-तत्र तेषु जीवादयः पञ्च पदार्थाः प्रदेशप्रचयात्मकाः प्रदेशसमूहात्मका ज्ञेया ज्ञातव्याः । कालं विना कायाः । कालस्य कायत्वं न संभवति प्रदेशरहितत्वात् । अमी पूर्वोक्ता भिन्नप्रकृतयः भिन्नस्वभावाः । पृथग्लक्षणत्वात् । इति सूत्रार्थः ॥२६॥ पुनस्तेषामेव स्वरूपमाह।
___416 ) अचिद्रूपाः-जीवं चेतनालक्षणं विना सर्वे पदार्था अचिद्रूपा अज्ञानस्वरूपाः । पुद्गलं गलनपूरणधर्म विना अमूर्ता मूर्तत्वरहिताः। वस्तुतः परमार्थतः सर्वपदार्थाः स्थित्युत्पत्तिव्ययात्मकाः स्थित्युत्पत्तिनाशस्वरूपाः इत्यर्थः ॥२७॥ अथ पुद्गलानां भेदमाह ।
उक्त छह द्रव्योंमें कालको छोड़कर शेष जीवादिक पाँच द्रव्य भिन्न-भिन्न स्वभाववाले होकर भी प्रदेश समूहात्मक होनेसे काय कहे गये हैं, ऐसा समझना चाहिए । विशेषार्थकायका अर्थ शरीर होता है । जो द्रव्य कायके समान बहुप्रदेशी हैं वे काय कहे जाते हैं । ऐसे द्रव्य पांच हैं-जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाश । जितने क्षेत्रको एक परमाणु रोकता है उतने क्षेत्रका नाम प्रदेश है । ये प्रदेश प्रत्येक जीव, धर्मद्रव्य और अधर्म द्रव्यके असंख्यात (लोकाकाश प्रमाण) हैं। पुद्गलों में किसी (द्वयणुकादि ) स्कन्धके संख्यात, किसीके असंख्यात और किसीके अनन्त होते हैं। आकाशके वे अनन्त हैं। इस प्रकार प्रदेशों में अधिक होनेसे ये द्रव्य अस्तिकाय कहे जाते हैं। परन्तु काल चूंकि एक ही प्रदेशरूप है अतएव वह अस्तिस्वरूप होकर भी काय नहीं माना गया है। उक्त पाँच द्रव्य कायत्वकी अपेक्षा समान होते हुए भी प्रकृतिभेदसे-क्रमशः चेतनत्व, मूर्तिमत्त्व, गतिहेतुत्व, स्थितिहेतुत्व और अवकाश हेतुत्वसे-परस्पर भिन्न हैं ॥२६॥
उक्त छहों द्रव्योंमें जीवको छोड़कर शेष पाँच अचिद्रूप-अचेतन या जड़-तथा पुद्गलको छोड़कर शेष पाँच अमूर्त-रूप, रस, गन्ध और स्पर्शसे रहित हैं। ये सब उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य ( स्थिति ) स्वरूप होनेसे पदार्थ द्रव्य कहे जाते हैं । विशेषार्थ-जो सत् अर्थात् उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यसे सहित होता है वह द्रव्य या पदार्थ कहलाता है। ये तीनों अवस्थाएँ प्रत्येक पदार्थ में प्रति समय रहती हैं। इनमें अपनी जातिको न छोड़कर बाह्य और अभ्यन्तर निमित्तके वश जो अवस्थान्तरकी उत्पत्ति होती है उसका नाम उत्पाद
और पूर्व पर्यायके विनाशका नाम व्यय है । जैसे-सुवर्णके कड़ेको तुड़वाकर उसकी सांकल बनवानेपर सांकल अवस्थाका उत्पाद और कड़ेरूप अवस्थाका व्यय तथा वस्तु जिस अनादि पारिणामिक स्वभावसे उत्पन्न और विनष्ट न होकर सदा स्थिर रहती है, उसका नाम ध्रौव्य है । जैसे-कड़ेसे सांकलके बननेपर भी उन दोनों ही अवस्थाओंमें सुवर्ण सामान्य जैसाका तसा अवस्थित रहता है-वह न उत्पन्न हुआ और न नष्ट भी हुआ है। यह ध्रौव्यका स्वरूप है ॥२७॥
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