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८.३९
ज्ञानार्णव: 511 ) स्वपुत्रपौत्रसंतानं वर्धयन्त्यादरैर्जनाः ।
व्यापादयन्ति चान्येषामत्र हेतुर्न बुध्यते ॥३९ 512 , परमाणोः परं नाल्पं न महद् गगनात्परम् ।
यथा किंचित्तथा धर्मों नाहिंसालक्षणात्परः ॥४० 513 ) तपाश्रुतयमज्ञानध्यानदानादिकर्मणाम् ।
सत्यशीलवतादीनामहिंसा जननी मता ॥४१
अनाथान् । पुनः कोदृशान् । जीवितप्रियान् । इति सूत्रार्थः ॥३८॥ अथ स्वजनान् पालयन्ति । अन्यान् मारणे विशेषमाह।
511 ) स्वपुत्रपौत्र-जनाः स्वपुत्रपौत्रसंतानम् आदरैर्वर्धयन्ति च। अन्येषां जोवानां व्यापादयन्ति । अत्र विषये हेतुर्न बुध्यते ज्ञायते । इति सूत्रार्थः ॥३९।। अथ हिंसाधिक्यमाह ।
512 ) परमाणोः परं-परमाणोः सकाशात् अल्पं स्तोकं नास्ति । गगनात्परं महन्नास्ति । यथेति दृष्टान्तोपन्यासार्थः । तथा अहिंसालक्षणात् धर्मात् परधर्मो न वर्तते, इति सूत्रार्थः ॥४०॥ सर्वधर्मे जीवदयाधिक्यमाह ।
513 ) त श्रुत-[ तपः श्रुतादिकर्मणां तथा सत्यादिवतानां अहिंसैव परा जननी श्रेष्ठा माता इत्यर्थः । ] । ४१॥ अथ यादृशस्य ध्यानं सिद्धं तादृशमाह ।
प्राणियोंका जो घात करते हैं उन्होंने क्या अपनेको अजर-अमर समझ लिया है ? अभिप्राय यह है कि जैसे घातक प्राणियोंको अपना जीवन प्रिय है वैसे ही अन्य प्राणियोंको-पशुपक्षियों आदिको-भी अपना जीवन प्रिय है। अतएव अन्य प्राणियोंका घात करना उचित नहीं है ।।३८॥
जो मनुष्य अपने पुत्र और पौत्र आदिरूप सन्ततिका आदरके साथ प्रेमपूर्वक-परिवर्धन करते हैं वे ही अन्य (मृगादि) प्राणियोंकी सन्ततिका जो घात करते हैं, इसका कारण
होता। तात्पर्य यह कि मनुष्य जैसे अपनी सन्तानका संरक्षण करते हैं वैसे ही उन्हें कर्तव्य समझकर अन्य प्राणियोंकी सन्तानका भी संरक्षण करना चाहिए ॥३९॥
जिस प्रकार परमाणुसे दूसरा कोई छोटा नहीं है, तथा आकाशसे दूसरा कोई बड़ा है उसी प्रकार हिंसासे निकृष्ट दूसरा कोई पाप नहीं है तथा अहिंसासे उत्कृष्ट कोई धर्म नहीं है-सब धर्मों में अहिंसा धर्म ही उत्कृष्ट है ॥४०॥
वह अहिंसा तप, श्रुत, संयम, ज्ञान, ध्यान और दान आदि क्रियाओंकी तथा सत्य, शील और व्रत आदिकी जननी मानी गयी है। अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार माता सन्तानको पुष्ट करती है उसी प्रकार अहिंसा उपयुक्त तप व श्रुत आदिको पुष्ट करती है। उस अहिंसाके बिना वे सब व्यर्थ रहते हैं ॥४१।।
१. M स्वपत्रमित्रसंतानं।
२. All others except PL F B] वान्येषा ।
३. Bends here.
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