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ज्ञानार्णवः
[ ८.५३525 ) किं न तप्तं तपस्तेन किं न दत्तं महात्मना।
वितीर्णमभयं येन प्रीतिमालम्ब्य देहिनाम् ।।५३ 526 ) यथा यथा हृदि स्थैर्य करोति करुणा नृणाम् ।
तथा तथा विवेकश्रीः परां प्रीतिं प्रकाशते ॥५४ 527 ) [अन्ययोगव्यवच्छेदादहिंसा श्रीजिनागमे ।।
परैश्च योगमात्रेण कीर्तिता सा यदृच्छया ॥५४*१] 1 28 ) तन्नास्ति जोवलोके जिनेन्द्रदेवेन्द्रचक्रेकल्याणम् ।
यत्प्राप्नुवन्ति मनुजा न जीवरक्षानुरागेण ॥५५ 525 ) कि न तप्तं तेन किं तपो न तप्तम् । तेन महात्मना कि न दत्तम् । येन प्रीतिमालम्ब्य देहिनामभयं दानं वितीर्णम्, इति सूत्रार्थः ।।५३।। अथ विवेकस्य दयाकार्यत्वमाह ।
526 ) यथा यथा-नणां मनुष्याणां हदि स्थैर्य करुणा दया यथा यथा करोति तथा तथा विवेकश्रीः परामुत्कृष्टां प्रीति प्रकाशयेत् । इति सूत्रार्थः ॥५४॥ अथाहिंसाया विशेषमाह ।
527 ) अन्ययोग-श्रीजिनागमे अहिंसा कीर्तिता । कस्मात् । अन्ययोगा ये ज्ञानादयस्तेषां व्यवच्छेदात् नाशात् । च पुनः । परैमिथ्यात्विभिः । सा अहिंसा यदृच्छया योगमात्रेण यज्ञादिकरणेन कीर्तिता, इति सूत्रार्थः॥५४१।। अथ जोवदयासाध्यं किमपि नास्तीत्याह।
528 ) तन्नास्ति-जीवलोकेषु तत् जिनेन्द्रदेवेन्द्रचक्रकल्याणं नास्ति । यन्मनुजाः मनुष्याः जीवरक्षानुरागेण न प्राप्नुवन्ति, इति सूत्रार्थः ॥५५।। अथ हिंसाफलमाह । आर्या ।
जिस मनुष्यने प्रेमपूर्वक प्राणियोंको अभय दिया है उसने कौन-से तपका अनुष्ठान नहीं किया है तथा उस महापुरुषने क्या नहीं दिया है ? अभिप्राय यह है कि दयालुताके वशीभूत होकर जो प्राणियोंका संरक्षण किया जाता है, यह तपसे बढ़कर व सब दानोंमें श्रेष्ठ है॥५३॥
मनुष्योंके हृदयमें दया जैसे-जैसे स्थिरताको करती है वैसे ही वैसे विवेकरूप लक्ष्मी उत्कृष्ट प्रीतिको प्रगट करती है। तात्पर्य यह कि मनुष्यके अन्तःकरणमें जैसे-जैसे दया वृद्धिको प्राप्त होती है वैसे-वैसे उसकी विवेकबुद्धि भी वृद्धिंगत होती है ॥५४॥
जिनागममें जो अहिंसा कही गयी है वह अन्ययोगव्यवच्छेदसे कही गयी है, अर्थात् अहिंसाको छोड़कर दूसरा कोई भी धर्म नहीं है-वही मुख्य धर्म है इस दृढ़तासे उसे स्वीकार किया गया है। किन्तु दूसरोंने स्वेच्छापूर्वक योगमात्रसे उसका उपदेश किया है उन्होंने यदि कहीं अहिंसाको धर्म बतलाया है तो कहीं हिंसाको भी धर्म बतलाया है ।।५४२१॥
इस जीवजगत्से तीर्थकर, इन्द्र और चक्रवर्तीका वह कोई भी कल्याणकारक पद नहीं है, जिसे कि मनुष्य जीवरक्षाके अनरागसे न प्राप्त कर सकते हों-जीवोंके विषयमें दयालतापूर्ण आचरण करनेवाले मनुष्य इन्द्र, चक्रवर्ती और तीर्थंकरके भी पदको प्राप्त करते हैं ॥५५।। १. M N महात्मनाम् । २. F V C X प्रकाशयेत् । ३. P om. । ४. M कोर्तिताम् । ५. M JY चक्रिकल्याणं ।
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