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ज्ञानार्णवः
399 ) चरस्थिरभवोद्भूतविकल्पैः कल्पिताः पृथक् । भवन्त्यनेकभेदास्ते जीवाः संसारवर्तिनः ॥ ११ 400 ) पृथिव्यादिविभेदेन स्थावराः पञ्चधा मताः । सास्त्वनेकभेदास्ते नानायोनिसमाश्रिताः ||१२ 401 ) चतुर्धा गतिभेदेन भिद्यन्ते प्राणिनः परम् । मनुष्यामरतिर्यञ्चो नारकाश्च यथायथम् ॥१३
मान् दर्शनज्ञानानन्दशक्तियुक्तः । पुनः कीदृशः । मृत्यूत्पादादिजन्मोत्थक्लेशप्रचयविच्युतः मरणोत्पत्त्यादिजन्मभ्यः उत्थः क्लेशः तस्य प्रचयः समूहः तेन विच्युतो रहितः । इति सूत्रार्थः ॥ १०॥ अथ संसारिजीवानाह ।
399 ) चरस्थिर—ते संसारवर्तिनो जीवा अनेकभेदा भवन्ति । कीदृशाः । पृथक् पृथक् कल्पिताः । कैः । चरस्थिरभवोद्भूतविकल्पैः ॥ ११॥ त्रसस्थावरभेदानाह ।
[ ६.११
400 ) पृथिव्यादि - [ पृथिवी, आप, तेज, वायु, वनस्पतिः, इति पञ्चप्रकाराः स्थावरा एकेन्द्रियाः । नानायोनिषु समाश्रिताः साः द्वोन्द्रियादयः नेकभेदाः कथिता इत्यर्थः ॥ १२ ॥ ] पुनः संसारिवानाह ।
401 ) चतुर्धा – [ देवमनुष्य तिर्यञ्चनारका इति गतिभेदेन प्राणिनां चत्वारो भेदाः ॥ १३॥ प्राणिनां भ्रमणमाह ।
प्राप्त कर चुका है वह सिद्ध कहा जाता है । सब सिद्ध जीव उक्त अनन्त चतुष्टयकी अपेक्षा एक ही स्वभाववाले ( समान ) हैं । ये मरण और जन्म आदिरूप संसारके कष्टसमूह से सर्वदा के लिए रहित हो चुके हैं ॥ १० ॥
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चर और स्थिर स्वरूप संसारपरिभ्रमण से उत्पन्न हुए भेदोंके द्वारा पृथक-पृथक भेदकी कल्पनाको प्राप्त हुए वे संसारी जीव अनेक भेदों में विभक्त हैं । अभिप्राय यह है कि संसारी जीव मूलमें दो प्रकार के हैं - त्रस और स्थावर । जो त्रस नामकर्मके उदयसे चलने-फिरने में समर्थ होते हैं वे त्रस कहलाते हैं । किन्तु जो स्थावर नामकर्मके उदयसे इच्छानुसार गमनागमन में असमर्थ होते हैं वे स्थावर कहे जाते हैं । वे सब अनेक प्रकारके हैं । इन भेदोंका निर्देश आगे ग्रन्थकार स्वयं करते हैं ॥११॥
स्थावर जीव पृथिवी आदिके भेद से- पृथिवी, जल, अग्नि, वायु व वनस्पति इन भेदोंकी अपेक्षा - पाँच प्रकारके माने गये हैं। त्रस जीव अनेक प्रकारके हैं और वे विविध अवस्थाओं को प्राप्त हैं ||१२||
सब संसारी जीव यथायोग्य गतिकी अपेक्षा केवल चार भेदों में विभक्त हैं - मनुष्य, देव, तिथंच और नारक || १३||
१] यथायथा ।
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