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६. दर्शनविशुद्धिः 402 ) भ्रमन्ति नियतं जन्मकान्तारे कश्मलाशयाः ।
दुरन्तकर्मसंपातप्रपञ्चवशवर्तिनः॥१४ 403 ) किं तु तिर्यग्गतावेव स्थावरा विकलेन्द्रियाः ।
असंज्ञिनश्च नान्यत्र प्रभवन्त्यङ्गिनः क्वचित् ॥१५ _104 ) उपसंहारविस्तारधर्मा' दृग्बोधलाञ्छनः ।
__कर्ता भोक्ता स्वयं जीवस्तनुमात्रो ऽप्यमूर्तिमान् ॥१६
402 ) भ्रमन्ति-कश्मलाशयाः पापबुद्धयो जीवा अनन्तकर्मसंघातविस्तारवशवर्तिनो जन्मकान्तारे पुनर्जन्मानुबन्धिनि संसारे नियतं निश्चितं भ्रमन्ति पर्यटन्ति, इत्यर्थः ॥१४॥ ] अथ जीवानां तिर्यग्गतिमाह।
____403 ) किं तु-अङ्गिनो जीवाः क्वचित् अन्यत्र न प्रभवन्ति नोत्पद्यन्ते । किं तु विशेषे । स्थावराः पञ्च पृथिव्यादयः । विकलेन्द्रिया द्वित्रिचतुरिन्द्रियाः। चकारात् असंज्ञिनः। तिर्यग्गतावेव उत्पद्यन्ते । इति सूत्रार्थः ॥१५॥ अथ जीवस्वरूपमाह।
___404 ) उपसंहार--जीवः स्वयं कर्ता भोक्ता तनुमात्रो देहमात्रव्यापी अमूर्तिमान् । पुनः कोदशः । दग्बोधलाञ्छनः दर्शनज्ञानलक्षणः । पुनः कीदृशः। उपसंहारविस्तार*धर्मः कुन्थुदन्तिदेहप्रमाणोपसंहारविस्तारजीवप्रदेशः। इति तात्पर्यार्थः ॥१६॥ उक्तं च । अथ जीवस्योत्पत्तिमाह ।
हृदयमें मोह या मूर्छाको धारण करनेवाले वे सब संसारी जीव दुर्विनाश कर्मके उदयसे आरम्भ व प्रतारणामें संलग्न होकर नियमसे परिभ्रमण कर रहे हैं ॥१४॥
परन्तु उपर्युक्त पृथिवी आदिस्वरूप पाँच स्थावर, विकलेन्द्रिय-द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय व चतुरिन्द्रिय-तथा असंज्ञी पंचेन्द्रिय प्राणी ये सब एक मात्र तिर्यंचगतिमें ही होते हैं, अन्य किसी गतिमें वे नहीं प्राप्त होते हैं ॥१५।।
जीव अमूर्तिक-रूप, रस, गन्ध व स्पर्शसे रहित होकर भी संकोच व विस्ताररूप धर्म (स्वभाव ) के कारण प्राप्त हुए शरीरके प्रमाण रहता है। वह ज्ञान और दर्शन स्वरूपको प्राप्त होकर स्वयं कर्मका कर्ता और उसके फलका भोक्ता भी है ।। विशेषार्थजीव स्वभावसे अमूर्तिक है। परन्तु वह अनादि कालसे कर्मके साथ एकमेक हो रहा है। इस दृष्टिसे उसे मूर्तिक भी कहा जाता है। वह यद्यपि प्रदेशों की अपेक्षा असंख्यात प्रदेशीलोकके बराबर है, फिर भी नामकर्मके उदयसे जिस अवस्थामें जो शरीर उसे प्राप्त होता है उसीके भीतर वह संकोच और विस्तारको प्राप्त होकर रहता है। उदाहरण स्वरूप जैसेदीपकका प्रकाश यद्यपि असीमित है, फिर भी वह यथायोग्य छोटे-बड़े कमरे आदिको पाकर तत्प्रमाण ही रहता है। सांख्य प्रकृतिको की और पुरुषको भोक्ता मानते हैं। इसे लक्ष्यमें रखते हुए यहाँ यह बतलाया गया है कि वह जीव स्वयं कर्ता भी है और स्वयं भोक्ता भी है ॥१६॥ कहा भी है।
१.P first line is written on the margin | २. Others except P M V B कल्मषाशयाः । ३. M N कर्मसंघात । ४. P adds this verse on the margin | ५. B विस्तारधर्मो ।
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