________________
ज्ञानार्णवः
[४.३ - 286 ) अन्वयव्यतिरेकाभ्यां गुणदोषैः प्रपञ्चितम् ।
हेयोपादेयभावेन सविकल्पं निगद्यते ॥३ 287 ) ध्याता ध्यानमितस्तदङ्गमखिलं दृग्बोधवृत्तान्वितं
ध्येयं तद्गुणदोषलाञ्छनयुतं नामानि कालः फलम् । एतत्सूत्रमहार्णवात् समुदितं यत्प्राक् प्रणीतं बुधैस्तत्सम्यक् परिभावयन्तु निपुणा अत्रोच्यमानं क्रमात् ॥४
286) अन्वयव्यतिरेकाभ्यां-तद्ध्यानं सविकल्पं निगद्यते। हेयोपादेयभावेन त्याज्यग्राह्यभावेन गुणदोषः प्रपञ्चितं विस्तारितम् । काभ्याम् । अन्वयव्यतिरेकाभ्याम् । सति तद्भावेऽन्वयः। असति तदभावे व्यतिरेकः । तत्रानुमानमाह । इदं ध्यानं मोक्षसाधकम् । गुणवत्त्वात् । रत्नत्रयवत् । व्यतिरेकानुमानमाह। एतद् ध्यानं न मोक्षकारणम् । दोषवत्त्वात् । यन्न मोक्षकारणं न तद्दोषवत् प्रति न (?) इत्यन्वयव्यतिरेकाभ्यां सविकल्पता इति सूत्रार्थः ॥३॥ अथ ध्यानद्वारमाह । शा० वि०।
287 ) ध्याता-पूर्व ध्याता ध्यानकर्ता । ततो ध्यानम् । कोदृशम् । तदनं ध्यानाङ्गम् अखिलं समस्तम् । कीदृशम् अङ्गम् । दृग्बोधवृत्तान्वितं दृष्टिज्ञानचरित्रान्वितम् । पुनः ध्येयं वस्तु तद्गुणदोषलक्षणयुतम् । सुगमम् । नामानि। ध्यानस्य कालः। फलं ध्यानफलम् ।
__ अन्वय और व्यतिरेकके साथ गुण व दोषोंसे विस्तृत तथा हेय व उपादेय स्वरूपसे भेदको प्राप्त हुए उक्त ध्यानका यहाँ वर्णन किया जाता है। विशेषार्थ-विवक्षित किसी एकके सद्भावमें ही जो अन्यका नियमतः सद्भाव पाया जाता है इसका नाम अन्वय, तथा विवक्षित किसी एकके अभाव में जो अन्यका नियमतः अभाव पाया जाता है, इसका नाम व्यतिरेक है। जैसे धुएँका सद्भाव अग्निके सद्भावमें ही पाया जाता है (अन्वय ) तथा अग्निके अभावमें नियमतः धुएँका अभाव पाया जाता है (व्यतिरेक)। प्रकृतमें अभिप्राय यह है कि विवक्षित गुणोंके सद्भावमें ही समीचीन ध्यानका सद्भाव और उन गुणोंके अभावमें उस समीचीन ध्यानका भी अभाव रहता है। इसी प्रकार विवक्षित दोषोंके सद्भावमें नियमसे असमीचीन ध्यान (दुर्ध्यान ) का सद्भाव और उनके अभावमें उस असमीचीन ध्यानका भी अभाव पाया जाता है । इन गुणों और दोषोंके वर्णनके साथ उक्त ध्यानका वर्णन विस्तारसे किया गया है। साथ ही यहाँ यह भी कहा गया है कि जो ध्यान गुणोंसे संयुक्त है वह उपादेय (ग्राह्य ) तथा जो दोषोंसे संयुक्त है वह हेय ( त्याज्य ) है। इस प्रकार हेय और उपादेयके भेदसे उक्त ध्यानके दो भेद हो गये हैं ॥३॥
ध्याता (ध्यान करनेवाला), ध्यान, सम्यग्दर्शन ज्ञान व चारित्रसे संयुक्त उसके समस्त अंग, गुण-दोषोंकी पहिचानके साथ ध्येय (ध्यानके योग्य वस्तु), ध्यानके नाम,
१. P सविकल्पं = सभेदं। २. All others except P लक्षणयुतं । ३. Y काल: स्फुटम् । ४. M N निपुणास्त्वत्रोच्यमानं ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org