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ज्ञानार्णवः *
295 ) निरन्तरार्तानलदाहदुर्गमे कुवासनाध्वान्तविलुप्त
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अनेकचिन्ता ज्वरजिह्मितात्मनां नृणां गृहे नात्महितं प्रसिध्यति ॥ १२ 296 ) विषन्महापङ्कनिमग्नबुद्धयः प्ररूढरागज्वरयन्त्रपीडिताः । परिग्रहव्यालविषाग्निमूर्च्छिता विवेकवीभ्यां गृहिणः स्खलन्त्यमी ॥ १३ 297 ) हिताहितविमूढात्मा स्वं शश्वद्वेष्टयेद् गृही । अनेकारम्भजैः पापैः कोशकारः कृमिर्यथा || १४
295 ) निरन्तरार्तानल - नृणां गृहे स्वात्महितं * न सिध्यति * । अनेकचिन्ताज्वरजिह्मितात्मनाम् अनेकचिन्ताज्वरपीडितात्मनाम् । कीदृशे । निरन्तरावर्तानलदाहदुर्गमे सदावर्ताग्निदाहदुर्ग्राह्ये । सुगमम् । पुनः कोदृशे । कुवासनाध्वान्तविलुप्तलोचने । सुगममिति सूत्रार्थः || १२ || अथ सति परिग्रहे विवेकाभावमाह ।
[ ४.१२
296 ) विपन्महापङ्क – अमी गृहिणः विवेकवोथ्यां विवेकमार्गे स्खलन्ति । कीदृशाः । विपमहापङ्कनिमग्न बुद्धयः आपन्महापङ्कमज्जितबुद्धयः । सुगमम् । प्ररूढरागज्वरयन्त्रपीडिताः गभीररागज्वरयन्त्रपीडिताः । पुनः कीदृशाः । परिग्रहव्यालविषाग्निमूर्च्छिताः परिग्रहसर्पगरानलमूर्छिताः इति सूत्रम् ||१३|| पुनर्गृहिस्वरूपमाह ।
297 ) हिताहित- गृही पापैः स्वं वेष्टयेत् । शश्वत् निरन्तरम् । कीदृशः । हिताहितविमूढात्मा । कीदृशैः पापैः । अनेकारम्भजैः । यथा कोशकारकृमि: कोशीटकनामा कोटविशेषः स्वं वेष्टयेत् । इति सूत्रार्थः || १४ || अथ संयमादिना रागाद्यभावमाह ।
निरन्तर आर्तध्यानरूप अग्निके सन्तापसे दुर्गम और कुत्सित वासनारूप अन्धकार आँखोंको अन्धा करनेवाले घर में स्थित मनुष्योंकी आत्मा चूँकि अनेक चिन्तारूप ज्वर से मन्द रहती है अतएव वहाँपर रहते हुए वे आत्महितको सिद्ध नहीं कर सकते हैं । अभिप्राय यह है कि गृहस्थाश्रम में रहनेवाले मनुष्य निरन्तर अनेक प्रकारकी चिन्ताओंसे ग्रसित रहते हैं; इसीलिए वहाँ आत्महितके साधनभूत तप, संयम एवं ध्यान आदिका आचरण सम्भव नहीं है ॥१२॥
घर में रहते हुए जिनकी बुद्धि विपत्तिरूप गहरे कीचड़ में फँसी रहती है, जो उत्पन्न हुए रागरूप ज्वरके यन्त्रसे व्यथित रहते हैं, तथा जो परिग्रहरूप सर्पके विषके सन्तापसे मूर्छितसुध-बुध हीन --रहते हैं; वे गृहस्थ विवेकरूप वीथी (गली ) में स्खलित होते हैं - मार्गको भूल जाते हैं । अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार सर्पके द्वारा काटा गया मनुष्य उसके विषसे मूर्छित होकर : मार्ग से भ्रष्ट हो जाता है उसी प्रकार घरमें रहते हुए मनुष्य त्रिषयतृष्णाविषके समान भयानक से मूर्छित रहकर विवेकसे भ्रष्ट रहता है-उसे आत्म-परका विवेक नहीं रहता है ||१३||
हिताहित के विषय में मूढ अन्तःकरणवाला गृहस्थ अपनेको निरन्तर अनेक आरम्भ
१. MN विलुप्तचेतने । २. M जिह्मितात्मना । ३. LS BJ गृहे स्वात्महितं न सिध्यति । ४ F प्रसिध्यते । ५. BJत्मा शश्वत्संवेष्टयेद्गृही ।
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