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४. ध्यानगुणदोषाः 3.45 ) यतित्वं जीवनोपायं कुर्वन्तः किं न लज्जिताः । . मातुः पणमिवालम्ब्य यथा केचिद्गतघृणाः ॥५४ 346 ) नित्रपाः कर्म कुर्वन्ति यतित्वे ऽप्यतिनिन्दितम् ।
ततो विराध्य सन्मार्ग विशन्ति नरकोदरे ॥५५ 347 ) अविद्याश्रयणं युक्तं प्राग्गृहावस्थितैर्वरम् ।
मुक्त्यङ्ग लिङ्गमादाय न श्लाघ्यं लोकदम्भनम् ॥५६ __345 ) यतित्वं जीवनोपायं-केचित् यतित्वमवलम्ब्य जीवनोपायं कुर्वन्तः किं न लज्जिताः । मातुः पणं मातुः शपथम् अवलम्ब्य किं यथा लज्जन्ते। कीदृशाः केचित् । गतघृणाः निर्दयाः । इति सूत्रार्थः ॥५४॥ अथ सन्मार्गच्युतानां नरकफलमाह ।
346 ) निस्त्रपाः कर्म-केचित् निस्त्रपाः निर्लज्जाः यतित्वे ऽपि अतिनिन्दितं कर्म कुर्वन्ति । ततस्तस्मात् । सन्मार्ग विराध्य नरकोदरे विशन्ति प्रविशन्तीत्यर्थः ।।५५।। अथ मुक्तेः लिङ्गमाह ।
317) अविद्याश्रयणं-प्राक् पूर्व गृहावस्थितैर्गृहस्थैरविद्याश्रयणं युक्तम् । मुक्त्यङ्ग लिङ्गचिह्नमादाय लोकदम्भनं लोकविप्रतारणं न श्लाघ्यं न शस्यम् ।।५६।। अथ बुधानामशुभकर्मणो हेयत्वमाह। जलके ऊपरसे तथा आकाशमें गमन करना, अंजनसाधन-भूमिके भीतर स्थित धातु आदिको देख सकना, निस्त्रिंशसाधन-अग्नि व जलमय अस्त्र-शस्त्रादिको सिद्ध करना, भूत ( व्यन्तर ) साधन तथा सर्पसाधन-सर्पको वशमें करना, इनको आदि लेकर विविध प्रकार की क्रियाओं में अनुरक्त होकर दुराचरण में प्रवृत्त हो रहे हैं वे आत्मस्वरूपके जानने में असमर्थ होकर दोनों लोकोंसे भ्रष्ट होते हैं ॥५०-५३।।
जिस प्रकार कितने ही निर्दय (या निर्लज्ज ) मनुष्य माताके मूल्यका आलम्बन लेकर--उसे वेश्या बनाकर-आजीविकाको सिद्ध करते हैं और इसके लिए लज्जित नहीं होते हैं उसी प्रकार कितने ही निर्दय-अपने आपपर भी दया न करनेवाले मनुष्य मुनिलिंगको आजीविकाका साधन बनाकर लज्जित क्यों नहीं होते हैं ? अर्थात् उन्हें इसके लिए अवश्य लजित होना चाहिए । कारण यह कि जो लोग मुनिलिंगको धारण करके भी निर्लज्ज होते हुए अतिशय निन्दित कार्य करते हैं वे इस प्रकारसे समीचीन मार्ग ( मोक्षमार्ग) की विराधना करके नरकके मध्यमें प्रविष्ट होते हैं ॥५४-५५।।।
मुनिलिंग धारण करनेके पूर्व जिस प्रकार गृहमें अवस्थित थे उसी प्रकारसे घरमें रहकर ही अज्ञानताका आश्रय लेना-निन्ध कार्य करना-कदाचित् योग्य कहा जा सकता था, परन्तु मुक्ति के कारणभूत लिंगको-मुनि अवस्थाको-ग्रहण करके लोगोंको ठगना अर्थात् उस सुनिलिंगके विरुद्ध आचरण करना, कभी भी प्रशंसनीय नहीं हो सकता है ।।५६।।
१. B यतित्वे जीव । २. v BCXY R मातुः पण्य मिव । ३. T "मिवालम्बं । ४. N यथा केचन निघृणाः । ५. M लोकडम्बनं ।
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