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-७1 ६. दर्शनविशद्धिः
१३७ 393 ) एकं प्रशमसंवेगदयास्तिक्यादिलक्षणम् ।
आत्मनः शुद्धिमानं 'स्यादितरच समन्ततः ॥६*४॥ इति । 394 ) द्रव्यादिकमथासाद्य तज्जीवैः प्राप्यते क्वचित् ।
पञ्चविंशतिमुत्सृज्य दोषांस्तच्छक्तिघातकान् ।।७ भवन्ति । तासां सप्तप्रकृतीनां प्रशमात् औपशमिकम् । सम्यक् क्षयात् क्षायिकम् । च पुनः । उभयतः प्रशमात् क्षयाद्वा क्षायोपशमिकमिति सूत्रार्थः ।।६*३॥ अथ वीतरागसम्यक्त्वमाह।
393) एकं-आत्मनः एकं सम्यक्त्वं स्यात् । कोदृशम् । प्रशमसंवेगदयास्तिक्यादिलक्षणम् । क्रोधाद्यभावः प्रशमः । संसारासारतासंवेगः दया। आस्तिक्यं जिनधर्मस्थापनम् । तदेव लक्षणं यस्य तत् । पुनः कीदृशम् । आत्मनः शुचिमात्र* पवित्रम् । च पुनः । इतरत् सम्यक्त्वं समन्ततः सर्वप्रकारेण वीतरागसम्यक्त्वं भवतीत्यर्थः ॥६+४।। अथ सम्यक्त्वप्राप्तिकारणमाह।
394) द्रव्यादिक-अथेत्यानन्तर्य । तत्सम्यक्त्वं जीवः क्वचित् प्राप्यते । कि कृत्वा । द्रव्यादिकमासाद्य प्राप्य । पञ्चविंशतिदोषानुत्सृज्य त्यक्त्वा । कीदृशान् दोषान् । तच्छक्तिघातकान् सम्यक्त्वघातकान् । इति सूत्रार्थः ॥७॥ [ अथ सम्यग्दर्शनदोषानाह । उक्तं चउत्पन्न होता है वह औपशमिक; उन्हीं सात प्रकृतियोंके क्षयसे जो उत्पन्न होता है वह सायिक तथा उन्हींके क्षयोपशमसे जो उत्पन्न होता है वह क्षायोपशमिक कहलाता है। इस प्रकार निर्मल बुद्धिके धारक गणधरादि उस सम्यग्दर्शनके तीन भेद बतलाते हैं ॥६१३॥
एक सम्यग्दर्शन प्रशम, संवेग, दया और आस्तिक्य स्वरूप तथा दूसरा सब ओरसे निवृत्त होकर केवल आत्माकी शुद्धिमात्रकी अपेक्षा करनेवाला है। विशेषार्थ-अभिप्राय इसका यह है कि उक्त सम्यग्दर्शन जिस प्रकार कारणकी अपेक्षासे तीन प्रकारका है उसी प्रकार से वह स्वामीकी अपेक्षासे दो प्रकारका भी है-सरागसम्यग्दर्शन और वीतरागसम्यग्दर्शन । जो सम्यग्दर्शन रागी जीवके होता है वह सराग और जो वीतरागके होता है वह वीतराग सम्यग्दर्शन कहलाता है। इनमें सरागसम्यग्दर्शनकी पहिचान प्रशम, संवेग, अनुकम्पा और आस्तिक्य इन गुणोंके द्वारा होती है। बाह्य वस्तुओंके आश्रयसे मनमें राग-द्वेषबुद्धिका उत्पन्न न होना, इसका नाम प्रशम है । शारीरिक, मानसिक एवं आगन्तुक दुःखोंके कारणभूत संसारसे भयभीत होनेका नाम संवेग है । मनमें समस्त प्राणियों के प्रति जो दयालुता उदित होती है उसे अनुकम्पा कहते हैं। आप्त, आगम और पदार्थोंके अस्तित्वकी दृढताको आस्तिक्य कहा जाता है। इन गुणोंके सद्भावमें उस सम्यग्दर्शनके सद्भावका अनुमान मात्र किया जा सकता है । परन्तु उनके अभावमें उस सम्यग्दर्शनका अभाव निश्चित जाना जाता है। वीतरागसम्यग्दर्शन आत्माकी शुद्धि मात्र है। इसमें आप्त, आगम एवं पदार्थ आदिका विकल्प ही नहीं रहता है ॥६४॥
जीव द्रव्य-क्षेत्रादिरूप सामग्रीको प्राप्त करके सम्यग्दर्शन शक्तिके घातक पचीस दोषोंको नष्ट करते हुए कहींपर भी-चारों गतियोंमेंसे किसी भी गतिमें-उस सम्यग्दर्शनको प्राप्त करते हैं ॥७॥ कहा भी है१. N शक्तिमात्रं, BJ शुचिमात्र । २. PM इति । ३. V CR°तच्छक्तिघातक।
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