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६. दर्शनविशुद्धिः
(386) रत्नत्रयमनासाद्य यः साक्षाद् ध्यातुमिच्छति । खपुष्पैः कुरुते मूढः स वन्ध्यासुतशेखरम् ॥४ 387 ) ['तत्त्वरुचिः सम्यक्त्वं तत्त्वप्रख्यापकं भवेज्ज्ञानम् । पापक्रियानिवृत्तिश्चरित्रमुक्तं जिनेन्द्रेण || ४* १] 388 ) तत्रादौ सम्यग्दर्शनम् । तद्यथायज्जीवादिपदार्थानां श्रद्धानं तद्धि दर्शनम् । निसर्गादधिगत्या वा तद्भव्यस्यैव जायते ||५
386) रत्नत्रय - स मूढः खपुष्पैराकाशकुसुमैः वन्ध्यासुतशेखरं मुकुटं कुरुते । स इति कः । यः रत्नत्रयमनासाद्याप्राप्य साक्षात्प्रकारेण ध्यातुमिच्छति । इति सूत्रार्थः ॥ ४॥ अथ रत्नत्रयस्यैव विशेषार्थमाह ।
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387) तत्त्वरुचिः– [ तत्त्वरुचिः जीवादिसप्ततत्त्वेषु रुचिः श्रद्धानम् । सम्यक्त्वं सम्यग्दर्शनम् । तत्त्वप्रख्यापकं प्रकाशकं ज्ञानम् । विविधपाप क्रियाभ्यो निवृत्तिश्चारित्रम् । इत्येतत् जिनेन्द्रेणोपदिष्टमित्यर्थः ॥ ४* १ || ] तत्रादौ सम्यग्दर्शनम् । तद्यथा ।
388 ) यज्जीवादि - निसर्गेण * स्वभावेन अधिगत्या अभिनवप्राप्त्या | शेषं सुगमम् ||५|| अथ सम्यक्त्वावान्तरभेदानाह ।
जो मूर्ख उस रत्नत्रयको नहीं प्राप्त करके साक्षात् ध्यान करनेकी इच्छा करता है वह मानो आकाश के फूलोंसे माला बनाकर उससे बांझ स्त्रीके पुत्रकी शिखाको अलंकृत करता है - रत्नत्रयकी प्राप्तिके बिना वह ध्यान आकाशकुसुम और बन्ध्यापुत्रके समान असम्भव है ||४|| उनमें सम्यग्दर्शनकी प्ररूपणा इस प्रकार है
जीवादि तत्त्वोंकी रुचि ( अनुराग या श्रद्धान) का नाम सम्यग्दर्शन, उनके प्रगट करनेका नाम सम्यग्ज्ञान और पापकार्य से विरत होनेका नाम चारित्र है; इस प्रकार से जिनेन्द्र देवने उक्त रत्नत्रयका स्वरूप निर्दिष्ट किया है ||४* १ ||
जीवादि पदार्थों का जो श्रद्धान होता है उसे सम्यग्दर्शन कहते हैं । वह निसर्ग और अधिगम से उत्पन्न होकर भव्य जीवके ही होता है, अभव्यके नहीं । विशेषार्थ - अभिप्राय यह है कि वह सम्यग्दर्शन दो प्रकारका है - निसर्गज और अधिगमज । इनमें जो तत्त्वका श्रद्धान दूसरे के उपदेशके बिना स्वभावसे ही उत्पन्न होता है उसे निसर्गज सम्यग्दर्शन कहा जाता है । तथा दूसरेके उपदेशादिसे जो तत्त्वका श्रद्धान उत्पन्न होता है वह अधिगमज सम्यग्दर्शन कहलाता है । अन्तरंग और बहिरंगके भेदसे कारण दो प्रकारका है । इनमें सम्यग्दर्शनका अन्तरंग कारण तो दर्शनमोहनीयका उपशम, क्षय अथवा क्षयोपशम है जो उक्त दोनों ही सम्यग्दर्शन भेदों में समानरूपसे पाया जाता है । अधिगम अर्थबोध यह बाह्य कारण है । किसी जीवके अन्य मुनि आदिके उपदेशको सुनकर जो अर्थावबोध होता
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१. Pom. २. PLFB X तत्रादो etc., Y तत्रादौ सम्यक्त्वम् । तद्यथा । ३. All others except P निसर्गेणाधिगत्या ।
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