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ज्ञानार्णवः 290 ) उदीर्णकर्मेन्धनसंभवेन दुःखानलेनातिकदर्थ्यमानम् ।
दंदह्यते विश्वमिदं समन्तात् प्रमादमूढं च्युतसिद्धिमार्गम् ॥७ 291 ) दह्यमाने जगत्यस्मिन् महता मोहवह्निना ।
प्रमादमदमुत्सृज्य निष्क्रान्ता योगिनः परम् ॥८
290 ) उदीर्णकर्मेन्धन-इदं विश्वं जगत् समन्तात् दुःखानलेन अतिकदीमानं पीडयमानं दन्दह्यते । कीदृशेन दुःखानलेन। उदीर्णकर्मेन्धनसंभवेन उदीर्ण उदयं प्राप्तं यत् कर्म तदेवेन्धनसंभवेन । कीदृशम् । प्रमादमूढं प्रमादव्याप्तम् । पुनः कीदृशम् । च्युतसिद्धिमार्ग नष्टमोक्षमार्गमिति सूत्रार्थः ।।७।। अथ योगिवैराग्यमाह ।
291 ) दह्यमाने जगत्यस्मिन्-योगिनः परं केवलं निष्क्रान्ताः। किं कृत्वा । प्रमादमदम् उत्सृज्य त्यक्त्वा । क्व सति । अस्मिन् जगति मोहवह्निना महता दह्यमाने इति सूत्रार्थः ।।८।। गृहवासकुत्सितत्वमाह।
कलुषित करके समीचीन ध्यानसे विमुख करनेवाली हैं, अतएव ध्याताको उन कषायोंसे रहित होकर शान्तचित्त भी होना चाहिए। इसी प्रकार शरीरके ऊपर उसका इतना नियन्त्रण भी होना चाहिए कि इच्छानुसार वह किसी भी एक आसनसे स्थित हो दीर्घकाल तक ध्यान कर सके । इस प्रकार से ध्याता योगी जब गुप्तियों एवं समितियों आदिका परिपालन करने लगता है तब उसके नवीन कर्मोंका आगमन रुककर-संवर होकर-तपके प्रभावसे पूर्वसंचित कर्मकी निर्जरा भी होती है। इस प्रकार वह अन्तमें उत्कृष्ट ध्यानके आश्रयसे अपने अभीष्ट मोक्ष पदको प्राप्त कर लेता है ॥३॥
__ प्रमादसे मोहको प्राप्त होकर मुक्तिमार्गसे भ्रष्ट हुआ यह सारा विश्व उदयमें प्राप्त हुए कर्मरूप ईंधनसे उत्पन्न हुई दुःखरूप अग्निसे अतिशय पीड़ित होता हुआ चारों ओरसे बारबार जल रहा है-संतप्त हो रहा है ॥७॥
इस प्रकार तीव्र मोहरूप अग्निसे जाज्वल्यमान इस जगत्में से केवल योगीजन ही प्रमादरूप नशाको छोड़कर बाहिर निकले हैं। विशेषार्थ- अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार मदिराको पीकर उन्मत्त हुआ-नशे में चूर-मनुष्य घरके अग्निसे जलनेपर भी उसके भीतर ही स्थित रहता है और कष्ट सहता है, किन्तु उसके बाहिर नहीं निकलता है; उसी प्रकार प्रमादी जीव भी मोहसे संतप्त रहकर कष्ट तो भोगते हैं, किन्तु उस प्रमादको नहीं छोड़ते हैं। उस प्रमादको केवल वे योगीजन ही छोड़ते हैं जिनके अन्तःकरणमें सुख-दुःखका विवेक उदित हो चुका है ।।८।।
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