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४. ध्यानगुणदोषाः 288 ) ध्याता ध्यानं तथा ध्येयं फलं चेति चतुष्टयम् ।
इति सूत्रसमासेन सविकल्पं निगद्यते ॥५ 289 ) मुमुक्षुर्जन्मनिविण्णः शान्तचित्तो वशी स्थिरः ।
जिताक्षः संवृतो धीरो ध्याता शास्त्रे प्रशस्यते ॥६ तद्यथाएतत्सर्वं ध्यानादिसूत्रमहार्णवात् महार्णवसूत्रात् समुदितं कथितम् । बुधैः पण्डितैः यत् प्राक् पूर्व प्रणीतम् । हे निपुणाः अत्र शास्त्रे उच्यमानं क्रमात् अनुक्रमेण परिभावयन्तु इति सूत्रार्थः ।।४।। अथ सविकल्पतामाह।
___288 ) ध्याता ध्यान-ध्याता, ध्यानं, ध्येयं, फलं चेति सविकल्पध्यानं चतुर्विधरूपेण संक्षेपतो वणितम् ॥५॥ तत्र यथोद्देशं निर्देशमिति ज्ञायेत । पूर्वं ध्यातारमाह।
289 ) मुमुक्षुर्जन्म-एवंभूतो ध्याता शास्त्रे प्रशस्यते। कीदृशो ध्याता। मुमुक्षुः मोक्षं गन्तुमिच्छुः । जन्मनिविण्णः जन्मश्रान्तः । पुनः कीदृशः। शान्तचित्तादि सर्वं सुगमम् ।।६।। तद्यथा । अथ जगत्स्वरूपमाह। उसका काल और फल; इन सबका समुदित रूपमें वर्णन सूत्ररूप महासमुद्रसे जैसे विद्वानोंके द्वारा पूर्व में किया गया है वैसे ही क्रमसे उन सबका कथन यहाँपर (ज्ञानार्णवमें) किया जाता है । पण्डित जन उसका भलीभाँति पर्यालोचन ( या मनन ) करें ॥४॥
यहाँ ध्याता, ध्यान, ध्येय और उस ध्यानका फल इन चारोंका कथन भेदपूर्वक सूत्रके संक्षेपसे किया जाता है ।।५।।
__ वह इस प्रकारसे-जो मोक्षका अभिलाषी हो, संसार व शरीरादिसे विरक्त हो, शान्तचित्त हो, अपने आपपर-अन्तःकरणके ऊपर-नियन्त्रण रखनेवाला है, स्थिर होशरीरकी चंचलतासे रहित हो, इन्द्रियोंको वशमें रखता हो, और गुप्ति व समिति आदिसे आवृत हो-नवीन कर्मबन्धको रोक रहा हो; वह ध्याता है-ध्यानका अधिकारी है-और उसकी शास्त्र में प्रशंसा की गयी है। विशेषार्थ-इसके पूर्व श्लोक ३ में यह निर्दिष्ट किया गया था कि गुण और दोषोंके सद्भाव व असद्भावके साथ आगममें उस ध्यानका वर्णन विस्तृत है। तदनुसार यहाँ उस ध्यानके कर्ता में आवश्यक कौन-कौनसे गुण होने चाहिए, इसका दिग्दर्शन कराते हुए यहाँ यह कहा गया है कि सर्वप्रथम ध्याताको मोक्षका अभिलाषी होकर संसार, शरीर और भोगोंसे विरक्त होना चाहिए । कारण इसका यह है कि प्राणीको जब तक संसार में परिभ्रमण करते हुए जन्ममरणके दुःखका अनुभव नहीं होगा तथा वह जब तक विषयानुराग व ममत्वबुद्धिको उसका कारण नहीं समझेगा तब तक वह संसारसे विरक्त होकर मोक्षका अभिलाषी नहीं हो सकता है। और जब तक उसे मोक्षकी अभिलाषा उत्पन्न नहीं होती है तब तक उसकी ध्यान में प्रवृत्ति हो नहीं सकती है । इसके साथ उसे जितेन्द्रियइन्द्रियों और मनको वशमें रखनेवाला-भी होना चाहिए. क्योंकि, इन्द्रियों व मनपर विजय प्राप्त कर लेनेके बिना ध्यानमें कभी स्थिरता नहीं रह सकती है। क्रोधादि कषायें चूँकि चित्तको
१. M N इति चात्र, BJइति ध्यानं । २. M N तद्यथा-मुमुक्षु । ३. P M तद्यथा-उदोर्ण ।
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