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ज्ञानार्णवः
[ २.७८ -
127 ) देवलोके नृलोके च तिरश्चि नरके ऽपि च ।
न सा योनिन तद्र पं न स देशो न तत्कुलम् ॥७८ 128 ) न तेदःखं सुखं किंचिन्न पर्यायः स विद्यते ।
यते प्राणिनः शश्वद्यातायातैने खण्डिताः ॥७९ 129 ) न के बन्धुत्वमायाता न के जातास्तव द्विषः ।
दुरन्तागाधसंसारपङ्कमग्नस्य निर्दयम् ॥८० 130 ) भूपः कृमिर्भवत्यत्र कृमिश्चामरनायकः ।
शरीरी परिवर्तेत कर्मणा वश्चितो बलात् ॥८१
127-128 ) देवलोके-यत्र एते प्राणिनः शश्वत् निरन्तरं यातायातैः गतागतैः न खण्डिताः । स पर्यायो न विद्यते । देवलोके । च पुनः नृलोके । च पक्षान्तरे। तिरश्चि लोके तिर्यग्लोके । सा योनिः न । तद्रूपं न । स देशः न। तत्कुलं न । तदुःखं न । सुखमपि किंचिन्न इति श्लोकद्वयार्थः ।।७८-७९।। पुनस्तदेवाह ।
129 ) न के बन्धुत्व-रे जोव, तव न के बन्धुत्वमायाताः। के न द्विषो जाताः। कथंभूतस्य तव । निर्दयं यथा स्यात् तथा दुरन्तागाधसंसारपङ्कमज्जितस्येति सूत्रार्थः ॥८०॥ अथ कर्मवशान्नानापर्यायमाह ।
130 ) भूपः कृमिर्भवत्यत्र-शरीरो बलात् वञ्चितः परिवर्तेत। अत्र संसारे । भूपः कृमिर्भवति । च पुनः। कृमिः अमरनायको भवतीति तात्पर्यार्थः ॥८१॥ अथ कुटुम्बस्यानियतत्वमाह।
देवलोकमें, मनुष्यलोकमें, तिर्यग्लोकमें और नरकमें भी ( चारों ही गतियोंमें ) वह कोई योनि नहीं है, वह कोई रूप नहीं है, वह कोई देश नहीं है, वह कोई कुल नहीं है, वह कोई दुःख नहीं है, वह कोई सुख नहीं है, और वह कोई पर्याय नहीं है जहाँपर कि ये प्राणी निरन्तर यातायातोंसे-गति और आगतिसे-खण्डित न किये गये हों ॥७८-७९।।
हे भव्य ! दुःखके साथ नष्ट होनेवाले इस अथाह संसाररूप कीचड़के भीतर फंसे हुए तेरे साथ कौन तो बन्धुभावको नहीं प्राप्त हुए हैं और कौन निर्दयतापूर्वक शत्रभावको नहीं प्राप्त हुए हैं जो प्राणी कभी शत्रु रहे हैं वे ही कभी घनिष्ठ मित्र भी रहे हैं ।।८।।
___इस संसारमें कभी राजा तो मरकर क्षुद्र कीड़ा ( लट ) हो जाता है और कभी क्षुद्र कीड़ा भी देवोंका इन्द्र हो जाता है । इस प्रकार यह प्राणी कर्मके द्वारा बलपूर्वक ठगा जाकर अनेक योनियों में परिभ्रमण किया करता है ॥८॥
१.svc R न तद्देशो। २. M न स दुःखं । ३. B X के यातास्तव ।
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