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ज्ञानार्णवः
[२.५६ - 105 ) यदि दृष्टः श्रतो वास्ति यमाज्ञावञ्चको बली ।
तमाराध्य भज स्वास्थ्यं नैवं चेत्किं वृथा श्रमः॥५६ 106) परस्येव न जानाति विपत्तिं स्वस्य मूढधीः ।
वने सत्त्वसमाकीर्णे दह्यमाने तरुस्थवत् ।।५७ 107 ) यथा बालं तथा वृद्धं यथाढयं दुर्विधं तथा।
यथा शूरं तथा भीरु साम्येन ग्रसते ऽन्तकः॥५८ 105 ) यदि दृष्टः-हे भव्य, त्वं स्वास्थ्यं भज। तं वक्ष्यमाणम् आराध्य। तमिति कम् । कश्चित् यमाज्ञावञ्चकः पुरुषः यदि दृष्टः अथवा श्रुतो ऽस्ति वा। कथंभूतः कः । बलो बलवान् । एवं चेत् को ऽपि एतादृशो बली नास्ति तर्हि किं वृथा श्रमः क्रियते ॥५६॥ अथ मुग्धानां स्वकर्मफलमाह।
106 ) परस्येव न-कश्चित् मूढधो: मूर्खः, इव यथा, परस्य विपत्ति मरणादिकीं जानाति तथा स्वस्य न जानाति । तत्र दृष्टान्तमाह। यथा वने दह्यमाने तरुस्थजीववत् न जानाति । कथंभूते वने। सत्त्वसमाकीर्ण । को ऽर्थः। तरुस्थजोवः वने दह्यमानान् अनेकान् सत्त्वान् पश्यन् आत्मानं दह्यमानं न पश्यति इति तात्पर्यार्थः ॥५७|| अथान्तकसंहारविशेषमाह। ___107 ) यथा बालं-अन्तकोऽयं यमः सर्वान् जीवान् साम्येन ग्रसते । तत्कथम् । यथा बालं ग्रसते तथा वृद्धं ग्रसते। यथा आढयं धनिनं ग्रसते तथा दरिद्रं ग्रसते, यथा शूरं ग्रसते तथा भीरुं भयानकमिति भावः ॥५८।। अथ मरणे प्राप्ते समोषधादिकस्य विफलत्वमाह ।
हे मूर्ख ! यदि तूने यमकी आज्ञाको ठुकरानेवाले-कभी भी न मरनेवाले किसी भी बलवान्को देखा हो या सुना हो तो उसकी आराधना करके स्वास्थ्यकी सेवा कर-शरीरको स्वस्थ रखनेके लिए उसका पोषण भले ही कर परन्तु वैसे किसी बलवानको यदि कहींपर न देखा है और न सुना है तो फिर तेरा उस शरीरको स्थिर रखनेके लिये परिश्रम करना व्यर्थ है-उचित नहीं है ॥५६॥
जिस प्रकार अनेक पशु-पक्षियोंसे व्याप्त वनमें आगके लग जानेपर वृक्षपर स्थित मनुष्य अन्य प्राणियोंको तो जलता हुआ देखता है, परन्तु यह नहीं सोचता कि इस वृक्षके जलनेपर मैं भी उसीमें भस्म हो जानेवाला हूँ; इसी प्रकार अज्ञानी जीव दूसरेकी विपत्तिको तो जानता है, परन्तु उसीके समान मुझे भी वह विपत्ति प्राप्त होनेवाली है, इसका विचार नहीं करता है ।।५७||
यम ( मृत्यु ) जैसे बालकको ग्रसता है वैसे ही वह वृद्धको भी ग्रसता है, जैसे धनवान् मनुष्यको ग्रसता है वैसे ही निर्धनको भी ग्रसता है, तथा जैसे वीर सुभटको ग्रसता है वैसे ही कायरको भी ग्रसता है। इस प्रकार वह बिना किसी प्रकारके भेदभावके सभी प्राणियोंको समानरूपसे ग्रसता है-उसके आक्रमणसे कोई भी प्राणी नहीं बच सकता है ॥५८।।
१. N T परस्यैव न । २. X यथार्केन्दु [न्दं] विधुत्व[तु] दः ।
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