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द्रव्यानुयोग-(२)
२७. भव २८. आगरिसे २९-३०. कालंतरे य ३१. समुग्धाय ३२.खेत्त ३३.फुसणाय। ३४. भावे ३५. परिणामो खलु ३६. अप्पाबहुयं
नियंठाणं ॥३॥ ६. छत्तीसएहिं दारेहिं णियंठस्स परूवणं
१. पण्णवण-दारंप. कइणं भंते ! नियंठा पण्णत्ता? उ. गोयमा ! पंचविहा नियंठा पण्णत्ता,तं जहा१. पुलाए,
२. बउसे, ३. कुसीले,
४. नियंठे, ५. सिणाए।' प. पुलाएर णं भंते ! कइविहे पण्णत्ते? उ. गोयमा ! पंचविहे पण्णत्ते,तं जहा
१. नाणपुलाए, २. दंसणपुलाए, ३. चरित्तपुलाए, ४. लिंगपुलाए,
५. अहासुहुमपुलाए नामं पंचमे।३ प. २.बउसे णं भंते ! कइविहे पण्णते? उ. गोयमा !पंचविहे पण्णत्ते,तं जहा
१. आभोगबउसे, २. अणाभोगबउसे, ३. संवुडबउसे, ४. असंवुडबउसे, ५. अहासुहुमबउसे नामं पंचमे।
२७. भव, २८. आकर्ष, २९. काल, ३०.अन्तर, ३१. समुद्घात, ३२.क्षेत्र,३३.स्पर्शना। ३४. भाव, ३५. परिमाण, ३६. अल्पबहुत्व।
निर्ग्रन्थ एवं संयत का इन द्वारों से वर्णन किया गया है। ६. छत्तीस द्वारों से निर्ग्रन्थ का प्ररूपण
१. प्रज्ञापना-द्वारप्र. भंते ! निर्ग्रन्थ कितने प्रकार के कहे गये हैं ? उ. गौतम ! निर्ग्रन्थ पांच प्रकार के कहे गए हैं, यथा१. पुलाक,
२. बकुश, ३. कुशील,
४. निर्ग्रन्थ, ५. स्नातक। प्र. भंते ! पुलाक कितने प्रकार के कहे गए हैं? उ. गौतम ! पांच प्रकार के कहे गए हैं, यथा
१. ज्ञान पुलाक, २. दर्शन पुलाक, ३. चारित्र पुलाक, ४. लिंग पुलाक,
५. यथासूक्ष्म पुलाक। प्र. २. भंते ! बकुश कितने प्रकार के कहे गये हैं ? उ. गौतम ! पांच प्रकार के कहे गये हैं, यथा
१. आभोग-बकुश, २. अनाभोग-बकुश, ३. संवृत-बकुश, ४. असंवृत-बकुश, ५. यथासूक्ष्म-बकुश।।
१. ठाणं अ. ५, उ. ३, सु. ४४५ २. कषाय कुशील निर्ग्रन्थ जब पुलाक लब्धि का प्रयोग करता है तब पुलाक निर्ग्रन्थ कहा जाता है। उस समय उसके संज्वलन कषाय का तीव्र उदय
होता है अतः उसके संयम पर्यव अधिक नष्ट होने पर उसका संयम असार हो जाता है। इस लब्धि को पुलाक लब्धि और इस लब्धि के प्रयोक्ता को पुलाक निर्ग्रन्थ कहा गया है। इस लब्धि का प्रयोग करते समय तीन शुभ लेश्याओं के परिणाम ही रहते हैं इसलिए कषाय की तीव्रता होने पर भी वह निर्ग्रन्थ तो रहता ही है। लब्धि प्रयोग का काल अन्तर्मुहूर्त से अधिक नहीं है। इस लब्धि प्रयोग के मूल कारण पांच है-(१) ज्ञान, (२) दर्शन, (३) चारित्र, (४) लिंग एवं (५) साधु-साध्वी आदि की रक्षा। टीकाकार ने लब्धि पुलाक और आसेवना-पुलाक ये दो भेद भी किए हैं। किन्तु सूत्र वर्णित छत्तीस द्वारों के विषयों से आसेवना पुलाक भेद की संगति किसी भी प्रकार से संभव नहीं है। अतः लब्धि प्रयोग की अपेक्षा से ही
सूत्रोक्त पांचों भेद समझना सुसंगत है। ३. ठाणं अ. ५, उ. ३, सु. ४४५ ४. जिस श्रमण की रुचि आत्म-शुद्धि की अपेक्षा शरीर की विभूषा एवं उपकरणों की सजावट की ओर अधिक हो जाती है तो उसकी प्रवृत्ति खान,
पान, आराम, शयन एवं प्रक्षालन की बढ़ जाती है और स्वाध्याय, ध्यान, तप आदि में परिश्रम करने की प्रवृतियां कम हो जाती है, वह बकुश निर्ग्रन्थ कहा जाता है। बकुश निर्ग्रन्थ की पांच अवस्थाएं होती हैं१. लोक लज्जा के कारण शरीर विभूषादि की प्रवृत्तियां गुप्त रूप में करने वाले, २. लज्जा नष्ट हो जाने पर प्रकट रूप में प्रवृत्ति करने वाले, ३. उस प्रवृत्ति को अयोग्य समझते हुए करने वाले, ४. कुछ समझे बिना देखा-देखी परम्परा से करने वाले, ५. प्रमाद में अनावश्यक समय लगाने वाले एवं गुणों का विकास नहीं करने वाले। इन पांचों अवस्थाओं की अपेक्षा से इस निर्ग्रन्थ के पांच प्रकार कहे हैं।