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जब तक दूसरों से अपेक्षाएँ हैं तब तक परालंबी हैं, संसार है और विषय है तो वह मूल स्वाद नहीं आने देगा। एक बार का विषय तीन दिन तक भ्रांति में डाल देता है यानी कि वह सच्चे सुख को विस्मृत करवा देता है!
आत्मा की खुराक क्या है ? निरंतर ज्ञाता-दृष्टा। उसका फल क्या है? परमानंद।
__मनुष्य को आखिर तक आधार की ज़रूरत है। कोई न हो तो पैसे का आधार तो चाहिए ही। दादाश्री एक भाग्यशाली को समझाते हैं कि हमारी तरह बाह्य आधारों से छूट जाओ। सभी पैसे और घर-बार सौंप दो, फिर हमारी तरह निरालंब हो जाओगे। जब तक 'बैठक' की जगह रखी हो तब तक 'मैं', 'आत्मा' और 'बैठक' इस प्रकार से तीनों रहते हैं। 'मैं' समर्पण हो गया तो 'मैं' और 'आत्मा' एक ही। इस दुनिया में सिर्फ ज्ञानी को ही 'बैठक' का आधार नहीं है। इसीलिए वे निरालंब कहे जाते हैं। मैं ही आत्मा हूँ और आत्मा ही मैं हूँ। उसके बाद और कुछ रहा ही नहीं। बैठक को हटा दिया, इसलिए! जब तक बैठक है तब तक 'मैं' और 'आत्मा' एक नहीं हो सकते। बैठक के लिए गुरखा रखना पड़ता है। उसके बाद अंत में वह भी दगा ही निकलता है। बैठक में सिर्फ ज्ञानी को ही रखना चाहिए।
जो आँखों से दिखाई देते हैं वे दादा अलग हैं, वे 'ए.एम.पटेल' हैं, मूल दादा भगवान भीतर हैं और बीच का जो भाग है, वे सूक्ष्म दादा हैं, जिनका हम निदिध्यासन करते हैं। स्थूल दादा नहीं हों तो उससे परेशानी होगी लेकिन सूक्ष्म दादा हमेशा ही निदिध्यासन के रूप में रहेंगे उसमें कोई परेशानी नहीं आएगी। स्थूल टिके या न भी टिके। सूक्ष्म दादा, निदिध्यासन वाले, हज़ारों सालों तक चलेंगे। उसके बाद वाणी का निदिध्यासन आता है और अंत में तीसरा, भगवान का, वह निरालंब स्थिति है। उसका अन्य किसी भी प्रकार से चिंतवन नहीं हो सकता। मूल स्वरूप दिखाई देता है, हूबहू मूल स्वरूप, जिसे केवलज्ञान कहा गया है, वह दिखता रहता है। सूक्ष्म दादा का निदिध्यासन निरालंब की तरफ ले जाता है। दैहिक
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