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[५.२] चारित्र
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यथाख्यात चारित्र
प्रश्नकर्ता : क्या यथाख्यात चारित्र शुक्लध्यान है?
दादाश्री : जब शुक्ल ध्यान उत्पन्न होता है तब इस तरफ यथाख्यात चारित्र उत्पन्न हो जाता है। शुक्ल ध्यान उसे कहते हैं कि खुद अपना ही ध्यान, अन्य कोई चीज़ उसमें नहीं आए। स्वाभाविक ध्यान कहलाता है।
प्रश्नकर्ता : यथाख्यात चारित्र ही केवलज्ञान है ?
दादाश्री : नहीं। यथाख्यात चारित्र पूर्ण होने के बाद केवलज्ञान उत्पन्न होता है। यथाख्यात चारित्र में तो आत्मा का पूरा लक्ष (जागृति) बैठ जाता है कि वह क्या है! उसके बाद केवलज्ञान होता है।
प्रश्नकर्ता : यथाख्यात चारित्र का मतलब क्या है? दादाश्री : जैसा है वैसा चारित्र।
प्रश्नकर्ता : यह सम्यक् चारित्र से भी उच्च प्रकार का चारित्र कहलाता है?
दादाश्री : बहुत उच्च कहलाता है। प्रश्नकर्ता : केवलचारित्र?
दादाश्री : उससे आगे का जो चारित्र है, वह केवलचारित्र कहलाता है। यह जब पूर्ण हो जाता है तब केवलचारित्र कहलाता है।
वीतराग चारित्र में ही, फिर उसकी रमणता उसी में रहा करती है। वह है भगवान महावीर का चारित्र। आत्म रमणता, निज रमणता, स्वभाव रमणता।
प्रश्नकर्ता : स्वभाव रमणता ही यथाख्यात चारित्र है? दादाश्री : हाँ, यथाख्यात कहलाता है।
प्रश्नकर्ता : अब इस यथाख्यात चारित्र, सम्यक् चारित्र और केवलचारित्र में क्या फर्क है दादा?