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आप्तवाणी-१३ (उत्तरार्ध)
अतः उसे खुद की कोई भी ज़रूरत नहीं है। इस दुनिया में उसे किसी भी चीज़ का अवलंबन नहीं है, ऐसा वह आत्मा, वह परमात्मा है।
प्रश्नकर्ता : क्या वह बाहर की खुराक के बिना टिक सकता है?
दादाश्री : उसकी खुराक है ज्ञाता-दृष्टा। उसे खुद को बाहर से कुछ भी नहीं लेना है। सबकुछ उसके खुद के अंदर है।
प्रश्नकर्ता : क्योंकि मान-मोह-लोभ-माया, ये सब तभी टिकते हैं जब इन्हें खुराक मिले।
दादाश्री : हाँ। यह तो, अंदर से जैसे ही इच्छा हुई न तभी से यह सब खड़ा हो गया। जिसे इच्छा नहीं है, उनमें, इनमें से कोई भी चीज़ होगी ही नहीं न! इच्छा वाला भिखारी कहलाता है। कोई भी, घर, गाड़ी या चाहे किसी भी प्रकार की इच्छा हो, तो इच्छा वाला भिखारी है।
प्रश्नकर्ता : अतः आत्मा को भी खुराक देनी नहीं पड़ती, वह अपने आप ही ले लेता है?
दादाश्री : उसे कुछ भी देना ही नहीं पड़ता और उसे, जिसे कोई ज़रूरत ही नहीं है। यों ही खुद अपने आपसे ही जीवित रहता है।
प्रश्नकर्ता : बचपन से लेकर 100 साल का होने तक आत्मा की कोई खुराक नहीं है?
दादाश्री : जिसे कुछ भी नहीं होता, उसे क्या है ? सोने का सिक्का अंदर पड़ा रहे तब भी उस पर जंग नहीं लगता, और कोई असर नहीं होता। वह अंदर उसी प्रकार से पड़ा रहता है। सोने का सिक्का तो सिर्फ सिक्का है लेकिन ये तो भगवान हैं ! कुछ भी असर नहीं करता और फिर वे प्रकाश स्वरूप हैं!
प्रश्नकर्ता : आत्मा ज्ञाता-दृष्टा भाव रखे, वही उसकी खुराक है? दादाश्री : बस।