________________
[७] सब से अंतिम विज्ञान - 'मैं, बावा और मंगलदास'
४४१
दादाश्री : होता है न! (यहाँ पर ऐसा समझना है कि 'मैं' प्रज्ञा के रूप में काम करता है)
प्रश्नकर्ता : और वह समझने पर बावा 'मैं' के पास आता है। क्या ऐसा होता है?
दादाश्री : हाँ, उस समझ से ही आता है न! और क्या?
प्रश्नकर्ता : तो फिर यह सब क्या है ? अगर बावा को प्रगति करनी हो तो बीच में क्या आता है ?
दादाश्री : और कौन सी प्रगति करनी है ? जितना यह 'मैं' बताए उतना ही। 'मैं' के पास शब्द नहीं होते।
प्रश्नकर्ता : 'मैं' के पास शब्द नहीं होते? तो वह किस तरह से समझाता है उसे?
दादाश्री : यह तो वह जो शक्ति है न, प्रज्ञाशक्ति, वह 'मैं' का भाग है। प्योर ही है।
प्रश्नकर्ता : ठीक है।
दादाश्री : लेकिन उसकी संज्ञा से ही यह हो जाता है, शब्द नहीं हैं, उसकी उपस्थिति से ही यह सब चलता है। अगर वह नहीं होगा तो यह सब नहीं चल पाएगा। बावा आगे बढ़ेगा ही नहीं, नीचे गिर जाएगा लेकिन चढ़ेगा नहीं।
प्रश्नकर्ता : क्या प्रज्ञा उसे चढ़ा देती है?
दादाश्री : प्रज्ञा की वजह से ही चढ़ता जाता है और प्रज्ञा की गैरहाज़िरी में गिर जाता है। जागृति गई कि नीचे गिरा। मैं जो कह रहा हूँ, वह काम आएगा न?
प्रश्नकर्ता : हाँ दादा। बात तो बहुत स्पष्ट है, एकदम। क्लियर समझ में आ जाए, ऐसी है। अब इसमें मंगलदास को जो इफेक्ट आता है तो बावा पर उसका कितना असर होता है?