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[७] सब से अंतिम विज्ञान - 'मैं, बावा और मंगलदास'
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हो रहा है तब भी नहीं बोलते। एक अक्षर भी नहीं बोलते, वीतराग। आप लोगों के काम आते हैं ये खटपटिया।
प्रश्नकर्ता : दादा, सत्तावन, अठावन और उनसठ का क्या है
फिर?
दादाश्री : वह तो फिर डिग्री बढ़ती जाती है न, वह दशा और भी उच्च प्रकार की होती है। वह दशा बहुत उच्च है।
प्रश्नकर्ता : हमें ज़रा समझ में आए ऐसा कुछ बताइए न?
दादाश्री : वह (स्थिति) जैसे-जैसे आएगी न, तब समझ में आ जाएगा।
प्रश्नकर्ता : तीन सौ साठ वाले को यह जगत् कैसा दिखाई देता
दादाश्री : कोई जीव दु:खी नहीं है, कोई जीव सुखी नहीं है, कोई दोषित नहीं है। सबकुछ रेग्यूलर ही है। सब जीव निर्दोष ही दिखाई देते हैं, हमें भी निर्दोष दिखाई देते हैं लेकिन हमें श्रद्धा में निर्दोष दिखाई देते हैं, श्रद्धा में और ज्ञान में, चारित्र में नहीं इसीलिए हम कहते हैं न कि 'तूने यह गलत किया, इसका यह अच्छा है। जब तक अच्छा-बुरा कहते हैं तब तक वर्तन में निर्दोष नहीं दिखाई देते! हमें श्रद्धा में ज़रूर निर्दोष दिखाई देते हैं लेकिन अभी तक यह वर्तन में नहीं आया है। जब यह वर्तन में आएगा तब हमारी तीन सौ साठ डिग्री पूरी हो जाएँगी। हमारे मन में कुछ भी नहीं है, राग-देष ज़रा से भी नहीं हैं। शब्दों में कहते हैं। 'मैं', 'बावा' और 'मंगलदास', यह कौन समझता है?
प्रश्नकर्ता : लेकिन उस ज्ञान की ज़रूरत है जो ज्ञान बावा को 'मैं' में बिठा दे? अंतिम ज्ञान...
दादाश्री : नहीं, वह समझता है कि यह चंदूभाई मैं ही हूँ। कहता