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आप्तवाणी - १३ (उत्तरार्ध)
रहता है। खिलाने वाले -पिलाने वाले अलग होते हैं, अंदर चलाने वाले अलग होते हैं। ठेठ मोक्ष तक पहुँचाने वाले भी अलग होते हैं।
'दादा भगवान' और 'दादा बावो'
ज्ञानी भी बावा और आप भी बावा । फॉलोअर्स भी बावा लेकिन किसके फॉलोअर्स ? इस बावा के बावा ।
ज्ञानी, लोगों के सामने ऐसा कबूल नहीं करते कि 'बावा हूँ' क्योंकि वे जानते हैं कि फिर भक्ति चली जाएगी। ये भगवान क्या नहीं कर सकते ? हमारे लिए तो दादा जो कहें, वही सही है। दादा, वे भी बावा ही हैं न, थोड़े ही कोई भगवान हैं ?
‘दादा भगवान' वे भगवान हैं और दादा, वे बावा हैं ।
प्रश्नकर्ता : हमें तो दादा भगवान भी भगवान लगते हैं और बावा भी भगवान ही लगते हैं ।
दादाश्री : आपको तो ऐसा लगना ही चाहिए, यह तो मैं प्योर बात बता रहा हूँ। इतना प्योर कोई कहेगा ही नहीं न! हमें ऐसी कोई भावना ही नहीं हैं न कि मेरा नाम रहे ! ऐसा तो मैं ही कहता हूँ न, 'मुझमें बरकत नहीं रही!'
ये ‘दादा भगवान' फिर से नहीं मिलेंगे, इतने प्योर भगवान ! क्योंकि दूसरे भगवान तो ऐसा ही कहते हैं, 'मैं खुद ही भगवान हूँ और मैं ही इसका कर्ता-धर्ता हूँ', लेकिन मैं तो ऐसा कहता ही नहीं न !
प्रश्नकर्ता : नहीं, नहीं।
दादाश्री : जो हैं, उन्हीं के लिए कहता हूँ न कि ये हंड्रेड परसेन्ट भगवान हैं। अन्य किसी भगवान का गलत नहीं है । बिल्कुल सही बात है लेकिन वे खुद को भगवान कहते हैं इसीलिए हमें उतना पूर्ण लाभ नहीं मिलता जबकि इनसे तो क्या आश्चर्य सर्जित हो सकता है, वह कहा नहीं जा सकता!