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आप्तवाणी-१३ (उत्तरार्ध)
दादाश्री : वह समझ में आता है। वह दर्शन में आता है, समझ में आया इसका मतलब दर्शन में आ गया। यदि दर्शन में नहीं आया है तो उसे अदर्शन कहा जाता है।
प्रश्नकर्ता : यह मंगलदास का पद है, यह बावा का पद है, ऐसा कौन समझता है?
दादाश्री : 'मैं'। प्रश्नकर्ता : प्रज्ञा के रूप में? दादाश्री : हाँ।
प्रश्नकर्ता : ये बाहर की, व्यवहार की अवस्थाएँ वगैरह सब कौन देखता है? वह सारा मंगलदास देखता है या बावा?
दादाश्री : मंगलदास देखता है लेकिन यदि देखने वाले बावा की इच्छा होगी तभी दिखाई देगा, नहीं तो नहीं दिखाई देगा।
प्रश्नकर्ता : उस बावा की जिसमें इच्छा है, इन्टरेस्ट है।
दादाश्री : देखने वाला (बावा) होना चाहिए। ये तो चश्मे हैं। मंगलदास चश्मे जैसा है।
प्रश्नकर्ता : अर्थात् यह सब देखने वाला बावा है? दादाश्री : हाँ! देखने वाला बावा है।
प्रश्नकर्ता : तो फिर अच्छा-बुरा करने वाला भी बावा है? जो अच्छा-बुरा करता है, वह बावा है ?
दादाश्री : बस! नहीं तो और कौन?
प्रश्नकर्ता : और जो बावा को जानता है कि बावा ने यह सब किया, वह हम खुद, 'मैं'।
दादाश्री : 'मैं' यह सभी कुछ जानता है। 'मैं' मंगलदास को भी जानता है और इस बावा को भी जानता है, सभी को जानता है।