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[६] निरालंब
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दादाश्री : नहीं ऐसा नहीं है। भय है। 'कोई आ जाएगा कुछ हो जाएगा, क्या होगा?'
प्रश्नकर्ता : नहीं दादा! पति और बेटे के लिए ऐसे भय की वजह से कहाँ करते हैं? क्या वह मोह नहीं है, मोह?
दादाश्री : हाँ, वह मोह तो है ही। भय की वजह से मोह किया है। भय नहीं होता तो मोह ही नहीं करते। उसमें हूँफ ढूँढते हैं।
प्रश्नकर्ता : उसमें प्रेम नहीं है ? दादाश्री : नहीं है। प्रेम तो भला कहीं पर होता होगा? प्रश्नकर्ता : आसक्ति है यह सारी?
दादाश्री : तो और क्या? वहाँ पर ये प्याले पास-पास में रखें रहें, तो क्या इसका मतलब यह है कि सब एक-दूसरे के प्रति प्रेम वाले हैं ? देखो, रकाबियाँ साथ सो जाती हैं। क्या वे प्रेम वाली हैं ?
प्रश्नकर्ता : दादा, आपकी सरस्वती तो क्या कमाल की है ? ऐसा तो सुना ही नहीं था कहीं!
दादाश्री : नहीं हो सकता। वह रकाबी तो रकाबियों के साथ पड़ी रहती है और कप, कप के साथ पड़े रहते हैं। क्या प्याले और रकाबी के बीच प्रेम हो सकता है ? प्रेम तो दादा का है जो घटता-बढ़ता नहीं है। फूल-माला पहनाने पर भी जो बढ़ता नहीं है और कुछ टेढ़ा-मेढ़ा करने पर भी जो कम नहीं होता, वह प्रेम कहलाता है।
अतः हम निरालंब कहलाते हैं। अवलंबन नहीं है।
प्रश्नकर्ता : दादा, जो निरालंब रहते हैं, उन्हें कुदरत भी हेल्प करती है न?
दादाश्री : किसी-किसी जगह पर हेल्प नहीं करती। किसी-किसी की हेल्प करे तो बाद में उसकी शर्म रखनी पड़ती है। उसका उपकार मानना पड़ता है। वह निरालंबपना नहीं कहलाता।