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[६] निरालंब
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जाएगा। उससे तीर्थंकर को देखते ही आपके आनंद की सीमा नहीं रहेगी। पूरा जगत् विस्मृत हो जाएगा। जगत् का कुछ भी खाना-पीना अच्छा नहीं लगेगा। उस क्षण पूर्ण हो जाएगा। निरालंब आत्मा प्राप्त होगा। निरालंब! उसके बाद कोई अवलंबन नहीं रहेगा।
प्रश्नकर्ता : आप ऐसा कहते हैं न कि 'आपको मेरा अवलंबन है, लेकिन मैं निरालंबी हूँ इसलिए कोई हर्ज नहीं है'?
दादाश्री : बात सही है न! लेकिन मेरा अवलंबन तो आपको रखना ही पड़ेगा, और मैं निरालंबी हूँ। अर्थात् आपका ऊपरी सिर्फ मैं अकेला रहा, और मेरा ऊपरी कोई है नहीं।
प्रश्नकर्ता : लेकिन दादा, आप ज्ञानी की निशानियाँ बता रहे थे न, उसमें से एक निशानी यह है कि 'तेरे चाहे कैसे भी प्रश्न हों, उनमें से हर एक प्रश्न का जवाब देने के बजाय मैं तुझे ऐसी चीज़ दिखा देता हूँ कि तू ही तेरे सभी प्रश्नों का समाधान कर सके।
दादाश्री : तेरे प्रश्नों का तू सॉल्यूशन ला दे। मैं कहाँ झंझट करूँ? और अभी तो पचास हज़ार लोग आएँगे, कल लाख लोग आएँगे, क्या कहा जा सकता है ? मैं झंझट में कहाँ पढूँ? मेरा हेतु क्या है कि 'जो सुख मैंने प्राप्त किया, वह सुख तुम भी पाओ'। मेरा हेतु पूर्ण हो गया। बस हो गया! कितने ही लोग कहते हैं, 'दादाजी, हम छ:-छ: महीने तक नहीं आ पाते'। मैंने कहा, 'आपको आनंद रहता है न' तब कहते हैं 'हमें पूर्णाहुति का अनुभव होता है। दादा मेरे साथ हाज़िर रहते हैं। तो बहुत हो गया, उसके बाद हमें ऐसा नहीं है कि यहाँ आओ या जाओ। जिनका अवलंबन लिया है, उन्हें अगर हम से कोई चीज़ चाहिए तो झंझट रहेगी। हमें तो यहाँ किसी से कुछ चाहिए ही नहीं।
सारा ज्ञान दे दिया है। आगे तो, सिर्फ मेरी स्थिति की वजह से ही मैं आगे रह सका हूँ। आपसे आगे तैर ही रहा हूँ इसलिए साथ रहने से आपको लाभ मिलता है। बाकी दूसरे सब लोग जो थोड़ा बहुत गुप्त रखते हैं वे तो बहुत घोटाले वाले हैं। ऐसा नहीं होना चाहिए। क्योंकि