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आप्तवाणी-१३ (उत्तरार्ध)
कुछ भी बाकी नहीं रहता। जिस चीज़ की इच्छा करे, वह मिल जाती है और मेहनत कितनी? इच्छा करने जितनी ही। बाकी सब मेहनत तो मजदूरों को करनी होती है अथवा विकल्पियों को करनी होती है। निर्विकल्पी को कोई मेहनत नहीं करनी होती।
प्रश्नकर्ता : फिर ऐसे व्यक्ति का जगत् में किस प्रकार का प्रदान रहता है? अथवा जगत् कल्याण में उनका क्या महत्व है?
दादाश्री : उनकी उपस्थिति ही जगत् का कल्याण कर देती है। उपस्थिति ही। प्रेज़न्स से ही! जब जगत् का कल्याण होना होता है तब वे उपस्थित हो जाते हैं। उनकी उपस्थिति ही कल्याण कर देती है। जैसे कि यहाँ पर गर्मी के दिनों में अगर उस तरफ बर्फ पड़ी हो, दरवाजे के पास और हम सब दरवाज़े से अंदर आएँ तो हवा आती है। बर्फ की हवा का तो अंधेरे में भी पता चल जाता है कि आसपास कहीं बर्फ है। उसकी उपस्थिति ही काम करती है। इस शोर शराबा वगैरह से कोई काम नहीं होता। मैं कभी भी यों ज़ोर-ज़ोर से बोला ही नहीं हूँ।
अंत में विज्ञान स्वरूप बाकी, परमात्मा तो निरालंब हैं और एक्जेक्ट परमात्मा हैं। जहाँ किसी भी तरह के अवलंबन नहीं हैं, जहाँ कुछ भी नहीं है, जहाँ पर राग-द्वेष या शब्द-वब्द कुछ भी नहीं है। वहाँ पर कोई शब्द ही नहीं है
और निरा आनंद का कंद है, सोचते ही आनंद का कंद उत्पन्न हो जाता है। हमने जो आत्मा देखा है वह, केवलज्ञान स्वरूप आत्मा को देखा है। 'निरालंब आत्मा देखा है, इसका मतलब क्या है कि वहाँ श्रद्धा भी नहीं है, वहाँ 'केवल' है। केवलज्ञान ही निरालंब आत्मा है। अतः हमने केवलज्ञान देखा है। निरंतर वर्तना (चारित्र) में नहीं आया है।
आजकल व्यवहार में इसका जो अर्थ चल रहा है, केवलज्ञान का अर्थ वैसा नहीं है। हमने केवलज्ञान देखा है, तो व्यवहार वाला अर्थ गलत निकला। जहाँ पर केवल है, केवलज्ञान, जहाँ पर शब्द भी नहीं है, जहाँ अवलंबन नहीं है, वैसा उपयोग। मात्र एब्सल्यूट ज्ञान! गिनने वाला भी