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आप्तवाणी-१३ (उत्तरार्ध)
दादाश्री : हमारा पुद्गल ऐसा नहीं हैं कि पूर्ण रूप से भगवान पद दिखाए। अतः हम मना करते हैं कि 'हम भगवान नहीं हैं' लेकिन इसका क्या अर्थ है कि यह पूर्ण पद नहीं दिखाता? 'आइए चंदूभाई', इन्हें इस तरह से बुलाते हैं, तो वह सब क्या है? क्या ये भगवान के लक्षण हैं? और दूसरा, कई बार हम भारी शब्द भी बोल देते हैं। हमें खुद को भी समझ में आता है कि यह भूल हो रही है। ऐसा पूरी तरह से समझ में आता है, एक बाल जितना भी कुछ ऐसा नहीं निकल जाता कि जब हमें हमारी भूल न दिखाई दें। भूल होती है लेकिन तुरंत ही पता चल जाता है। वह डेवेलपमेन्ट की कमी है, भगवान बनने में। अतः हम मना करते हैं। भगवान बनना अर्थात् सारे आचार-विचार, सभी क्रियाएँ भगवान जैसी ही लगें। तब क्या होता हैं ? आत्मा तो आत्मा ही है, शरीर भगवान बना है, उसी को डेवेलपमेन्ट कहते हैं। आप अभी इतने डेवेलपमेन्ट तक पहुँचे हो, अब इतना डेवेलपमेन्ट बाकी रहा कि देह भी भगवान बन जाए। वह वैसा बनता ही जा रहा है, लोगों का (सभी महात्माओं का) ऐसा ही हो रहा है। अगर संयोग उल्टे मिलें तो उनमें से कितने ही नीचे भी चले जाते हैं ! हम रोज़ हमारा देख लेते हैं कि एक अक्षर भी किसी के प्रति विरोध न हो हमारा। किसी के साथ बिल्कुल भी मेल न खाए चाहे वह उल्टा बोले तब भी उसके प्रति विरोध नहीं होता।
स्व-दोष दिखने लगें, तभी से बावा जाने लगता है
मंगलदास का रक्षण करने से हम बावा ही रहेंगे और बावा का रक्षण करेंगे तो हम वापस मंगलदास ही बनेंगे। उसका जो हिसाब है वह उसे मिलता ही रहेगा, हमें देखते रहना है। क्या हो रहा है, उसे देखो, वही अपना मार्ग है।
ये कहते हैं, 'हमारे दोष क्यों नहीं बताते?' मैंने कहा, 'दिखाई देंगे तब बताएँगे न?' जब हमारे हाथ में आए, तब वह फाइल निकालेंगे। हाथ में नहीं आए, इसलिए मैंने समझा कि इसने दोष निकाल दिए होंगे। फिर जब वह हाथ में आता है तब दिखा देते हैं।
और जब खुद को खुद की भूल दिखाई देगी तब डिसिजन आ