Book Title: Aptvani 13 Uttararddh
Author(s): Dada Bhagwan
Publisher: Dada Bhagwan Aradhana Trust

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Page 500
________________ [७] सब से अंतिम विज्ञान - 'मैं, बावा और मंगलदास' ४१९ प्रश्नकर्ता : यानी समभाव से निकाल बावा का नहीं, चंदूभाई का करना है? दादाश्री : इस इंजीनियर को करना है। यह चंदूभाई ही इंजीनियर है न! चंदूभाई इंजीनियर को करना है, वह सिर्फ चंदूभाई नहीं है, वह तो फिर इंजीनियर भी है। समभाव अर्थात् मित्रता नहीं और दुश्मनी भी नहीं। यह (चंदूभाई) अपना दुश्मन नहीं है। उसे तो हमने ही बनाया है। हमने बनाया है न? भूल तो अपनी ही है न? मैं, बावा और मंगलदास समझ में आ गया ठीक से? तेरा भी बावा है न? प्रश्नकर्ता : हाँ, दादा। बावा का ही निकाल करना है न! दादाश्री : बावा कैसा है, उसे तू नहीं जानता? बावा का स्वभाव कैसा है? जानकार जानता है। बावा स्वभाव के अनुसार करता रहता है और जानकार जानता है कि इसने यह ऐसा किया। प्रश्नकर्ता : अब बावा को शुद्ध करते रहना है न? दादाश्री : हाँ, नहीं तो छोड़ेगा नहीं न! दावा करेगा। हाइकॉर्ट में दावा दायर कर लेगा तो फिर क्या होगा? हमें सब आता है। छूटना भी आता है और बंधना भी आता है। जब बंधते हैं तो अज्ञान से बंधते हैं। बंधने से फायदा नहीं होता इसलिए वापस छोड़ देते हैं। अब इसके साथ निकाल तो करना है। उस बावा को खुश करना पड़ेगा। अगर कुछ अच्छा खाने को नहीं मिले न, तो पूरी रात जागता है। अगर बावा को पहचान लेंगे तो फिर हम बावा नहीं रहेंगे। प्रश्नकर्ता : ठीक है। दादाश्री : बावा की अच्छा खाने की आदत नहीं रखें तो फिर परेशानी नहीं होगी। पहले तो बावा बनकर अच्छा खाने की आदत हो जाती है। वह आदत तो बल्कि बढ़ती जाती है। अब बावा से बाहर निकलकर हम इस 'मैं' में आ गए है!

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