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आप्तवाणी-१३ (उत्तरार्ध)
अलग रहकर देखे और जाने तो मन साफ होता जाता है। अतः मन का उतना नुकसान कम हो गया। लोग कहते हैं कि आत्मा एकाकार हो जाता है लेकिन आत्मा तो बस बात करने तक ही, ये लोग कहते हैं, उतना ही। बावा ही एकाकार होता है। बावा का मन, भाव मन। भाव, वह सब बावा है और जो द्रव्य है, वह मंगलदास है! वह जो भाव मन है, वह खुद की सत्ता में है। (अज्ञान दशा में) लीकेज हो रहा हो तो, (क्रमिक मार्ग में ऐसा ही होता है) हम उसे बंद कर सकते हैं। भाव मन ‘लीकेज' है, संयोगों के आधार पर। अब भाव मन का अर्थ क्या है ? 'मैं कर्ता हूँ', वहीं से भाव मन की शुरुआत होती है और अगर 'मैं अकर्ता हूँ' तो भाव बंद हो जाएंगे।
स्थूल मन मंगलदास में आता है और सूक्ष्म मन बावा में आता है। जो फिर से जन्म दिलवाता है, वह बावा का मन है। हमने बावा का वह मन निकाल दिया है इसलिए फिर वह स्थूल मन ही काम करता है। हमने उसे देखने का कहा है।
प्रश्नकर्ता : स्थूल मन को देखने वाला भी बावा ही है न?
दादाश्री : देखने वाला बावा ही है न। जो देखता है वह बावा है। उसे जानने वाला कौन है प्रज्ञाशक्ति । वह बात ठेठ आत्मा तक पहुँच गई, यानी कि 'देखना'। बावा सिर्फ देखने का काम नहीं कर सकता। बावा यदि इस तरह 'देखे' तो वह बावा नहीं है। अतः वहाँ पर प्रज्ञाशक्ति का काम है। देखने और जानने का काम प्रज्ञाशक्ति करती है। बावा जानता ज़रूर है कि यह जो देख और जान रहा है (आत्म दृष्टि से ज्ञातादृष्टा) वह मेरा स्वभाव नहीं है; मैं (बावा) तो सिर्फ इतना जानता हूँ कि 'मंगलदास क्या कर रहा है'।
प्रश्नकर्ता : यदि प्रज्ञा ही देखती और जानती है, तब तो इस बावा का एक्ज़िस्टन्स रहा ही नहीं न?
दादाश्री : लेकिन जब तक प्रज्ञा देखती व जानती है तब तक बावा रहता है। वह प्रज्ञा बावा को भी देखती व जानती है।