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[७] सब से अंतिम विज्ञान - 'मैं, बावा और मंगलदास'
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प्रश्नकर्ता : आपने अकर्ता पद में रख दिया है उसके बाद क्या बावा मन में तन्मयाकार हो सकता है ? फिर कैसे होता है?
दादाश्री : ऐसा है न, फिर खुद की ऐसी मान्यता नहीं रहती कि 'मैं बावा हूँ', इसलिए अकर्ता । अतः अब जो कुछ भी मंगलदास करता है, उसकी जिम्मेदारी अपनी नहीं रही क्योंकि उन सब का निकाल हो जाएगा। फिर से उसका रिएक्शन नहीं आएगा। अकर्ता बन जाएगा क्योंकि 'वही' कर्ता था, इसलिए रिएक्शन आ रहा था।
प्रश्नकर्ता : मंगलदास चाहे कोई भी क्रिया करे या फिर उसका मन विचार करे लेकिन अब बावा तन्मयाकार नहीं होता न?
दादाश्री : वह तो, बातों में ऐसा कहते हैं। आचरण में ऐसा रहना मुश्किल है न! वह तो धीरे-धीरे, धीरे-धीरे आएगा। इसे तो बहुत दिनों में पहचाना न, तन्मयाकारपन एकदम से जाता नहीं है न!
तीर्थंकर, वह है कर्म कोई पूछे, 'अब चेतन का भाग कौन सा है? चेतन कौन से भाग में आता है ?' 'क्या तीर्थंकर, वही चेतन है?' तब कहते हैं, 'नहीं, तीर्थंकर चेतन नहीं है। वह कर्म है। नाम कर्म है वह। तब कोई पूछे, 'क्या तीर्थंकर का अवतार चेतन है ?' तो कहते हैं, 'नहीं, चेतन नहीं है'। इन सब को जो जानता है वह 'चेतन' कहलाता है। अतः यह दुनिया विदाउट चेतन चलती रहती है। चेतन, सर्कल (सांसारिक अवस्थाएँ) से बाहर खड़ा है। प्योर! उसकी उपस्थिति से ही चल रहा है। उस 'प्योरिटी' का पता हमें कब चलता है ? सभी सर्कल्स को पहचान लेने के बाद। सर्कल में मेरापन न करे तो प्योर हो जाएगा!
प्रश्नकर्ता : पुद्गल की सभी अवस्थाएँ 'सर्कल' मानी जाएँगी?
दादाश्री : सभी अवस्थाएँ लेकिन लोगों को इसका भान ही नहीं है न! चेतन के बिना कैसे चल सकता है यह? पता कैसे चलेगा कि चेतन के बगैर चल रहा है यह? शास्त्र कैसे सीखेंगे? सम्यक् ज्ञान किस