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[६] निरालंब
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मैं निरालंब आत्मा में हूँ। तीर्थंकरों में जैसा निरालंब आत्मा था, जिन्हें शब्द का भी अवलंबन नहीं था, ऐसा निरालंब आत्मा और इसीलिए यह सब काम तुरंत स्पीडिली हो सकता है। फेल हुआ तीर्थंकर ही कहो ना!
प्रश्नकर्ता : फेल क्यों हो गए?
दादाश्री : कोई ऐसा रोग रहा होगा, इसीलिए। रोग के बिना फेल नहीं हो सकते न! और हम उस रोग को समझ गए कि वह कौन सा रोग था! रोग निकल भी गया।
इसीलिए फेल हुए केवलज्ञान में ज्ञानी दो प्रकार के होते हैं। एक वे, जिन्होंने शुद्धात्मा स्वरूप प्राप्त कर लिया है और वे उसके अनुभव में ही रहते हैं। लेकिन शुद्धात्मा स्वरूप शब्द का अवलंबन है और दूसरे प्रकार के ज्ञानी निरालंब होते हैं। तीर्थंकर ही निरालंब होते हैं। इसके बावजूद हम भी निरालंब हैं। हमारे लिए शुद्धात्मा स्वरूप शब्द में नहीं है। हम निरालंब आत्मा में हैं। जिसका कोई अवलंबन ही नहीं है। वह शब्द का अवलंबन और यह निरालंब है। ग्यारहवाँ आश्चर्य है!
___ हमें इससे क्या करना है? जब तक अवलंबन व परावलंबन रहें तब तक स्वावलंबन नहीं मिल सकता। अवलंबन का कोई तकिया रखा होगा तो फिर दूसरा नहीं मिल सकेगा। अगर तकिया ही नहीं रखा होगा तो क्या वह अवलंबन ढूँढेगा? हम निरालंब होकर बैठे ही हैं न! आपोपुं ( पोतापणुं-मैं हूँ और मेरा है ऐसा आरोपण, मेरापन ) चला गया।
उनके पास हर एक चीज़ हाज़िर रहती है। उनके माँगने से पहले ही, इच्छा होने से पहले ही चीजें आ जाती हैं।
प्रश्नकर्ता : सभी भौतिक चीजें भी मिल जाती हैं उन्हें? दादाश्री : हाँ। सभी भौतिक। हर एक चीज़ मिल जाती है उन्हें ।