Book Title: Aptvani 13 Uttararddh
Author(s): Dada Bhagwan
Publisher: Dada Bhagwan Aradhana Trust

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Page 461
________________ आप्तवाणी - १३ (उत्तरार्ध) ज्ञानी तो, जो होता है वह दे देते हैं। भले ही फिर वह हमारे पास न आए। हमने यह ज्ञान किसी को अपने पास बुलाने के लिए या सेवा करवाने के लिए नहीं दिया है। उसके उद्धार के लिए दिया है और मुझे सेवा की ज़रूरत भी नहीं है । मेरा उद्धार तो हो चुका है, सब हो चुका है । मुझे सेवा की क्या ज़रूरत है ? इसलिए जो भी हो उसे, सबकुछ पूर्ण रूप से दे ही देते हैं । प्रश्नकर्ता : वह जो कहा है न, लेशमात्र भी जिसे इच्छा नहीं ३८० रहे। दादाश्री : हाँ लेशमात्र किसी भी प्रकार की इच्छा नहीं । भगवान के पास ही इच्छा नहीं रखी, तो आपके पास कैसे रखूँ ? यह तो, बहुत कुछ पा लिया है। ऐसा तो कोई साधु-संन्यासी भी प्राप्त नहीं कर सकता, आपने ऐसा पाया है। अब उसके लिए असंतोष मत रखना । थिअरम ऑफ एब्सल्यूटिज़म प्रश्नकर्ता : यह वाक्य ज़रा समझना है, 'हम खुद थ्योरी ऑफ एब्सल्यूटिज़म में है । थ्योरी ही नहीं परंतु थिअरम में हैं ' । दादाश्री : हाँ! हमें कहने की खातिर ' थ्योरी में' कहना पड़ता है, बाकी, हम तो थिअरम में ही हैं । निरालंब में ही हैं । कोई अवलंबन नहीं रहा, ऐसी निरालंब स्थिति । प्रश्नकर्ता : एब्सल्यूट स्थिति का वर्णन समझाइए ज़रा । दादाश्री : एब्सल्यूट स्थिति अर्थात् 'पर - समय' बंद हो गया है। इस काल का छोटे से छोटा भाग, उसे समय कहा जाता है । यह जो पल है, यह समय नहीं है। उसके बहुत सूक्ष्म भाग को समय कहा जाता है। जहाँ एक समय भी पर - समय नहीं है, उसे एब्सल्यूट कहा जाता है और एब्सल्यूट हो जाने के बाद अवलंबन नहीं रहता, निरालंब स्थिति रहती है। प्रश्नकर्ता : निरालंब स्थिति तो एब्सल्यूट हुए बगैर भी अनुभव की जा सकती है न ?

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