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आप्तवाणी-१३ (उत्तरार्ध)
लेना पड़ेगा। जब तक हमारे पैर नीचे न लग जाए, हम समुद्र में उतरें तो इतना पानी होता है, जब तक पैर नीचे नहीं लग जाएँ तब तक तो वह करना पड़ेगा न! और वही सब तो हो रहा है। इसके लिए अब तुझे
और कुछ नहीं करना है। बात को सिर्फ जानना ही है। जानोगे तो वह फिट होता ही रहेगा, अपने आप ही। जानकर समझ लेना है। वास्तव में ज्ञान का मतलब क्या है कि जानना और समझना। अपने आप ही अंदर काम करता रहेगा।
प्रश्नकर्ता : जानते हैं फिर भी मूर्छा की एक ज़बरदस्त लहर आ जाए तो वापस वह घेर लेती है। जानने के बावजूद भी ऐसा हो जाता है।
दादाश्री : ऐसा है न हमने तो पिछले कितने ही जन्मों से इसकी शुरुआत कर दी थी। और आपने कितने जन्मों से शुरुआत की है? तो कहते हैं, 'अभी कुछ ही सालों से'। कुछ ही सालों की शुरुआत से यदि इतना ज़ोरदार हुआ है तो वे सब तेज़ी से खत्म हो जाएँगे, इस बात का तो विश्वास हो गया है न? दादा की याद आते ही अंतर शांति हो जाती है न जल्दी से?
प्रश्नकर्ता : तुरंत।
दादाश्री : बस तो फिर! यह सब से बड़ा उपाय है वर्ना एक बार अगर भय घुस जाए तो फिर पूरी रात निकलेगी क्या? और यदि दादा का अवलंबन लिया तो? तमाम दु:ख मिट जाएँगे।
प्रश्नकर्ता : उसके लिए एक बार आपने बहुत सुंदर वाक्य कहा था कि वीतरागों का अवलंबन, वह अवलंबन नहीं है।
दादाश्री : हाँ, सही बात है। वह अवलंबन वास्तव में अवलंबन है ही नहीं। और हमें भी निरालंब बनाता है।
प्रश्नकर्ता : वीतरागों का अवलंबन, अवलंबन नहीं है। उसमें आत्मा के सभी गुण आ जाते हैं ?
दादाश्री : सही बात है।