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आप्तवाणी - १३ (उत्तरार्ध)
चंदूभाई हूँ, फलाना हूँ, मैं शुद्धात्मा हूँ, मैं ज्ञानी हूँ, वह भी अवलंबन कहलाता है।
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प्रश्नकर्ता : दादाजी ! आपने कहा कि जो रिलेटिव है वह वर्ड में है, शब्दों में है और एब्सल्यूट निरालंब है तो रिलेटिव और एब्सल्यूट में क्या अंतर है?
दादाश्री : एब्सल्यूट तो बहुत बड़ी चीज़ है । इस शुद्धात्मा में आ गए न, तो आप मोक्ष के दरवाज़े के अंदर आ गए। आप ऐसे दरवाज़े में प्रवेश कर चुके हो कि अब आपको कोई बाहर नहीं निकाल सकता । लेकिन फिर भी यह सापेक्ष है । सापेक्ष क्यों ? वह इसलिए कि अगर आज्ञा का पालन करोगे तभी, वर्ना अगर आज्ञा पालन नहीं करोगे तो बाहर निकाल देंगे। आपके पास यह सापेक्ष है । अतः अंदर आ चुके हो और अगर ज़्यादा नहीं तो पचास-साठ प्रतिशत आज्ञा का पालन करो । हंड्रेड परसेन्ट पालन नहीं किया जा सकता, मैं जानता हूँ कि यह काल विचित्र है, लेकिन पचास-साठ प्रतिशत भी यदि आज्ञा का पालन करते हो तो आपको कोई बाहर नहीं निकालेगा ।
प्रश्नकर्ता : तो अभी तक यह निरालंब की सीढ़ी बाकी है ना ? एब्सल्यूट की सीढ़ी बाकी है ना ?
दादाश्री : आपने अब इस मोक्ष के दरवाज़े में प्रवेश कर लिया है तो अब क्यों कन्फ्यूज़ हो रहे हो ? दरवाज़े में घुसने ही कौन दे ? लाख जन्मों में भी कोई घुसने न दे । प्रवेश कर लिया है तो उसका आनंद मनाओ न! अब फिर एक पद बाकी रहा है तो क्या उसकी चिंता करनी है? आपको कैसा लगता है ?
प्रश्नकर्ता : समझने के लिए पूछा है।
दादाश्री : हाँ। खुद अपने आप को धन्य मानो । 'धन्य है मुझे कि मोक्ष के दरवाज़े में प्रवेश कर लिया है', ऐसा धन्य मानो । यदि मन पर आगे की चीज़ का बोझ रखोगे न तो मन में ऐसा रहा करेगा कि हमें वह पद नहीं मिला है, वह पद नहीं मिला है।