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आप्तवाणी - १३ (उत्तरार्ध)
यदि हूँफ लो तो ज्ञानी की ही
प्रश्नकर्ता : अतः जिसे ज्ञानी की हूँफ मिल जाए तो क्या फिर वह ज्ञानी की हूँफ के सहारे निरालंब हो सकता है ?
दादाश्री : हो सकता है न! निरालंब होने का रास्ता यही है न ! प्रश्नकर्ता: ज्ञानी की हूँफ नहीं मिले तो ? तो फिर निरालंब नहीं हो सकते ?
दादाश्री : तो बेचारा पत्नी की हूँफ ढूँढेगा, पत्नी की हूँफ नहीं मिलेगी तो दोस्त की ढूँढेगा, लेकिन किसी की हूँफ तो ढूँढेगा ही न !
प्रश्नकर्ता : फिर वह भटक नहीं जाएगा ? अगर ज्ञानी की हूँफ नहीं मिले तो...
दादाश्री : भटक ही गए हैं न, देखो न !
प्रश्नकर्ता : अत: हूँफ ज्ञानी की ही होनी चाहिए ?
दादाश्री : हाँ, लेकिन ज्ञानी मिलते नहीं है न! किसी-किसी काल में ही होते हैं।
प्रश्नकर्ता : जब हों तो मिलने चाहिए न ? ज्ञानी मिल जाएँ तब भी उनकी हूँफ मिलनी चाहिए न ?
दादाश्री : नहीं मिलते। पूरी दुनिया हूँफ ढूँढ रही है । हूँफ ! अपना गुजराती शब्द है ! अब हूँफ की वजह से ही तो जी रहे हैं लोग । 'फलाने भाई की हूँफ है तो मुझे अच्छा रहता है', कहेगा । उसमें भी फिर जो पत्नी है वह पति की हूँफ में रहती है, बेटी बाप की हूँफ में रहती है लेकिन किसी न किसी की हूँफ रहती है । हूँफ के आधार पर रहते हैं। सिर्फ ज्ञानी को ही हूँफ वगैरह की ज़रूरत नहीं है। यदि हूँफ रहे न, तब तो वह परतंत्रता है। हूँफ नहीं रहनी चाहिए। भगवान की भी हूँफ नहीं रहनी चाहिए। भगवान भी, परतंत्रता ! अरे फिर से दुःख । भगवान जाएँ, उनकी महारानी हों या उनके जो कोई भी हों, वहाँ पर जाएँ। हमें क्या
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