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[६] निरालंब
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प्रश्नकर्ता : दादा ने कहा न, मैं आत्मा और बैठक...
दादाश्री : 'मैं' को बैठक का आधार है ! इस दुनिया में सिर्फ ज्ञानी को ही किसी चीज़ का आधार नहीं रहता । आत्मा का ही आधार ! जो निरालंब है !
प्रश्नकर्ता : आत्मा का आधार किसे रहता है, 'मैं' को रहता है या बैठक को ?
दादाश्री : मैं ही आत्मा हूँ और आत्मा ही मैं हूँ । आत्मा का ही आधार, अर्थात् अवलंबन नहीं है । यदि कोई अवलंबन नहीं है तो निरालंब बन जाएगा, निरालंब ! वे जानते हैं, दादा निरालंब हैं ।
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प्रश्नकर्ता : यानि मैं और आत्मा एक हो जाएँगे ?
दादाश्री : एक ही हैं लेकिन बैठक की वजह से अलग हैं। प्रश्नकर्ता : बैठक को हटा देंगे तो मैं और आत्मा एक हो जाएँगे ? दादाश्री : एक हो जाएँगे। बस।
प्रश्नकर्ता : या फिर क्या ऐसा हो सकता है कि बैठक हो फिर भी मैं और आत्मा एक हो जाएँ ?
दादाश्री : नहीं-नहीं । बैठक के लिए गुरखा रखना पड़ेगा और उसके लिए ऐसा विचार आएगा कि, 'इसका क्या करेंगे ?' यह बैठक भी अगर सही निकली तो निकली, नहीं तो दगा निकलता है। क्या आपको ऐसा नहीं लगता ?
प्रश्नकर्ता : हाँ, दगा ही निकलता है।
दादाश्री : इसकी बजाय अपना क्या बुरा है ?
प्रश्नकर्ता: बैठक में सिर्फ ज्ञानी को ही रखना है, और कुछ भी
नहीं ।
दादाश्री : सब ज्ञानी पर छोड़ देना है, आप जो भी करो वह ।