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आप्तवाणी-१३ (उत्तरार्ध)
शुद्धात्मा दिया है, वह ठीक है, एक्जेक्ट है लेकिन उसके आगे तो आपको खुद ही पुरुषार्थ से जाना पड़ेगा। ये सभी अवलंबन टूट गए, सभी रिश्तेदार, बाकी के सभी, देह के अवलंबन छूट गए, तब इस शब्द (शुद्धात्मा) का अवलंबन रहा।
प्रश्नकर्ता : तो फिर 'मैं दादा भगवान जैसा शुद्धात्मा हूँ', ऐसा बोलना ठीक है?
दादाश्री : ऐसा ही बोलना चाहिए। प्रश्नकर्ता : तो 'महावीर भगवान जैसा शुद्धात्मा हूँ', ऐसा क्यों?
दादाश्री : हाँ, वैसा भी बोल सकते हैं क्योंकि उनके शुद्धात्मा जैसा ही मैं शुद्धात्मा हूँ।
कुछ गणित है इस तरफ का, सभी का गणित है, इस बारे में सारा मिलता-जुलता हुआ आता है ?
प्रश्नकर्ता : लेकिन महावीर भगवान तो केवलज्ञानी हो चुके हैं, तो हम उन्हें शुद्धात्मा क्यों कहते हैं ?
दादाश्री : नहीं, वह तो हम ऐसा कहते हैं कि 'हम महावीर भगवान जैसे शुद्धात्मा हैं'। भगवान जैसे शुद्धात्मा। जैसा उनका शुद्धात्मा था, वैसे ही शुद्धात्मा हम भी हैं।
प्रश्नकर्ता : लेकिन वे तो केवलज्ञानी हो चुके हैं न?
दादाश्री : हाँ, लेकिन वे भी शुद्धात्मा ही हैं। वे खुद को शुद्धात्मा नहीं मानते थे। वे तो निरालंब स्वरूप को ही खुद का स्वरूप मानते थे लेकिन यों कहने जाएँ तब शुद्धात्मा ही कहा जाएगा।
चौदहवें गुणस्थानक में निरपेक्ष निरालंब तो सिर्फ हम अकेले ही हैं। हम किसी से कहते नहीं हैं कि आप वहाँ तक आओ। इस जिंदगी में कोई नहीं आ सकेगा, अतः