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[६] निरालंब
दादाश्री : अवलंबन नहीं है। आत्मा का कोई आधार - आधारी संबंध नहीं है। आत्मा रियल है, अविनाशी है । देह रिलेटिव है विनाशी है। सारा रिलेटिव आधार - आधारी संबंध वाला है । आप खुद कर्म को आधार देते हो कि ‘मैंने किया', इसलिए कर्म खड़े रहते हैं। कर्म के आधार पर प्रकृति है, इस प्रकार उसका एक-एक आधार पकड़ में आता जाता है। तो अंत में वह देह तक आता है । इसे इसका आधार, इसे इसका आधार, इसे इसका।
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जब आप शुद्धात्मा हो तो वह भेद ज्ञान के अवलंबन से हो । भेद ज्ञान किसके अवलंबन से है ? वह ज्ञानीपुरुष के अवलंबन से है। अर्थात् इन सभी अवलंबनों में से होते हुए आता है। लेकिन इससे लोड नहीं पड़ता जबकि आधार - आधारी में लोड है।
यह शुद्धात्मा जो है, उसका स्वभाव आधार-आधारी भाव वाला है ही नहीं । यदि आधारी भाव होता तो निराधारपना लाता । अतः इस देह पर अवलंबित नहीं है ।
आपको अवलंबन रहा है कि मैं शुद्धात्मा बोलता हूँ। 'तो क्या वास्तव में भगवान मिल गए ?' तब कहता है, 'नहीं, अवलंबन मिला है'। शुद्धात्मा शब्द का अवलंबन है । बाद में जहाँ इस शब्द का अवलंबन छूट जाएगा, वहाँ परमात्मा हैं। वह निरालंब दशा है !
आधार - आधारी की समझ
इस दुनिया में लोग दो चीज़ों के आधार पर जीवित हैं। कौन-कौन से आधार ? तो वह है स्वरूप का आधार । आप सभी स्वरूप के आधार पर जीते हो और बाकी सब अहंकार के आधार पर । 'मैं चंदू लाल ही हूँ' ‘मैं ही हूँ' मी मी मी अरे, मी तर चाल लो (मैं तो चला) कहता है !
आधार-आधारी के संबंधों के आधार पर यह जगत् खड़ा । यह आधार स्वरूप के संबंध की वजह से है । वह आधार अहंकार के संबंध की वजह से है। यदि वह नहीं होगा, अहंकार नहीं होगा तो वह आधार