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आप्तवाणी-१३ (उत्तरार्ध)
आपका जो करें वही हमारा कीजिए। ज्ञानी ही खुद का आत्मा है इसलिए उन्हें तो अलग मान ही नहीं सकते। फिर भय नहीं रखना है कि अगर ज्ञानी बीमार हो जाएँगे या अगर वे नहीं रहेंगे तो हम क्या करेंगे? ऐसा कोई भय नहीं रखना है। ज्ञानी मरते ही नहीं हैं, यह तो सिर्फ शरीर मरता है। यह हमारा अवलंबन है ही नहीं न! हम निरालंब हैं ! इस देह का या पैसों का ज़रा सा भी ऐसा कोई अवलंबन नहीं है।
प्रश्नकर्ता : हमें तो ज्ञानी का, ज्ञान का और ज्ञानी की देह का एक समान ही अवलंबन लगता है।
दादाश्री : देह का अवलंबन तो, देह तो कल चली जाएगी। प्रश्नकर्ता : वह सहन नहीं होगा।
दादाश्री : वह नीरू बहन को सहन नहीं होगा। 'हमें' तो होगा न! आपको ऐसा स्त्रीपना निकाल देना है न! 'आप' बहुत गहराई में मत उतरना। 'इन्हें' यह निकालना पड़ेगा। नीरू बहन से सहन नहीं होगा, वह बात ठीक है लेकिन उनकी यह उलझन निकल जाएगी तो बहुत हो जाएगा।
सूक्ष्म दादा, निदिध्यासन के रूप में प्रश्नकर्ता : दादा भगवान तो चौदह लोकों के नाथ हैं, उनके अलावा और क्या चाहिए?
दादाश्री : चौदह लोकों के नाथ हैं लेकिन वे अपने हाथ में आएँगे कैसे? जब तक यह देह मंदिर है तब तक पकड़ में आएँगे उसके बाद जब यह मंदिर ही खत्म हो जाएगा तब?
प्रश्नकर्ता : भावना तो रखी है! आपके अलावा और कुछ भी नहीं चाहिए।
दादाश्री : वह ठीक है। अंदर चलेगा मेरे भाई, चलेगा। भावना चलेगी। भावनाओं का लाभ मिलेगा।