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[६] निरालंब
कहीं मेरी जागृति चली नहीं गई है'। यदि यह जागृति चली जाएगी तो उसके बिना ठीक नहीं लगेगा लेकिन वह जागृति है न! तो नींद से कहना, 'तुझे नहीं आना हो तो मत आना' । निरालंब, वह तो अंतिम बात है, उससे आगे कोई बात नहीं है । आलंबन से परतंत्र हो गया है अतः निरालंब अर्थात् स्वतंत्र होना है। भगवान भी ऊपरी नहीं । हम किसी अवलंबन के आधार पर जीते हैं इसलिए भगवान ऊपरी हैं और इस ज्ञान के बाद आप निरालंब हो गए हो। भगवान निरालंब ! एक ही जाति के हो गए, जाति एक हो गई। पहले जाति अलग थी।
देह के आलंबन
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निरालंब अर्थात् जहाँ सब प्रकार की स्वंत्रता हो, निरालंबपना हो, वहाँ पर किसका आलंबन रहेगा ! और शरीर का स्वभाव तो क्या है कि नंगे पैर चलने लगे तो, उसके पैर के तलिये ऐसे हो जाते हैं कि गर्मी में भी नंगे पैर चल सके। धूप में घूमे तो बॉडी धूप जैसी हो जाती है और पंखे के नीचे रहे तब वैसी हो जाती है । अत: जैसा आप करोगे वैसी ही हो जाएगी। फिर यदि पंखा नहीं होगा तो आप शोर मचाकर रख दोगे । हाय, पंखा नहीं है, पंखा नहीं है...
हम बिल्कुल निरालंब हैं । जिन्हें शब्द का भी अवलंबन नहीं है । यह जो शुद्धात्मा शब्द है, उसका भी जिन्हें अवलंबन नहीं है, वह निरालंब स्थिति है। इसके बावजूद सभी के बीच रहता हूँ, खाता हूँ, पीता हूँ, घूमता हूँ, फिरता हूँ सभी कुछ है फिर भी निरालंब हो सकता है इंसान। वह अभी ही हो सकता है। यह अक्रम विज्ञान ऐसा है कि निरालंब हो सकता है। अतः जिस-जिस की भावना है, वह हो सकता है
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संज्ञा से मूल आत्मा को पहुँचता है....
प्रश्नकर्ता : कई बार जब संग्राम होता है तब 'मैं शुद्धात्मा हूँ, मैं शुद्धात्मा हूँ', ऐसा कहने के बावजूद भी उलझन रहती थी फिर भी स्वतंत्रता नहीं आती थी और कमज़ोर पड़ जाता था ।
दादाश्री : कैसे आएगी ? वह शब्दावलंबन है न !